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लेश्या-कोश है वह नीललेशी, जिसमें लोहित-लाल वर्ण की उत्कृष्टता होती है वह तेजोलेशी, जिसमें हरिद्रा-पीत वर्ण की उत्कृष्टता होती है वह पद्मलेशी तथा जिसमें शुक्ल वर्ण की उत्कृष्टता होती है वह शुक्ललेशी है। इन वर्गों को छोड़कर वर्णान्तर को प्राप्त शरीर कापोतलेशी है ।
'२८ द्रव्य लेश्या और जीव के उत्पत्ति-मरण के नियम २८.१ द्रव्यलेश्या का ग्रहण और जीव के उत्पत्ति-मरण के नियम
(क) से किं तं लेसाणुवायगइ ? लेसाणुवायगइ जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा–कण्हलेसेसु वा जाव सुक्कलेसेसु वा, से तं लेसाणुवायगइ ।
–पण्ण० प १६ । उ १ । सू १११७ । पृ० २७२ (ख) जीवे गं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववज्जित्तए से णं भंते ! किं लेन्सेसु उववज्जइ ? गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइ परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा-कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काऊलेसेसु वा ; एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियव्वा। जाव जीवे णं भंते ! जे भविए जोइसिएसु उववजित्तए ? पुच्छा, गोयमा ! जल्लेसाइ दव्वाइ परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ, तं जहा-तेऊलेस्सेसु । जीवे णं भंते ! जे भविए वेमाणिएसु उववजित्तए से णं भंते ! किं लेस्सेसु उववज्जइ ? गोयमा ! जल्लेसाई दव्वाइ परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जइ ; तं जहा-तेउलेसेसु वा पम्हलेसेसु वा सुक्कलेसेसु वा।
-भग० श ३ । उ ४ । सू १७, १८, १६ । पृ० ४५६ लेश्या अनुपातगति विहायगति का १२वाँ भेद है। ( देखो पण्ण० ५ १६ । सू १४ । पृ० ४३२-३ ) जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके जीव काल करता है वह उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है, इसे लेश्या की अनुपातगति कहते हैं ।
जो जीव जिस लेश्या के द्रव्यों को ग्रहण करके काल करता है वह उसी लेश्या में जाकर उत्पन्न होता है। भविक नारक कृष्ण, नील या कापोत लेश्या ;
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