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लेश्या-कोश किण्ण-णील-काउलेम्साओ लब्भंति । देवा वि असंजद-सम्माइटिणो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाणा तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साहि सह मणुस्सेसु उववज्जति xxx।
प्रायोग्यलेश्या-पूर्व भव क्षेत्र में प्रयोजित लेश्या ।
नारकी असं यतसम्यग्दृष्टि प्रथम पृथ्वी आदि छठी पृथ्वी पर्यन्त में स्थितिकाल के शेष होने पर काल करके मनुष्य में उत्पन्न होते हैं तो अपनी-अपनी पृथ्वी के योग्य प्रायोजित लेश्याओं के साथ उत्पन्न होते हैं, अतः उनमें कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएं होती हैं तथा असंयतसम्यग्दृष्टि देव काल करके मनुष्य में उत्पन्न होते हैं तो वे अपनी देवर्गात में प्रयोजित तेजो, पद्म और शुक्ल लेश्याओं के साथ उत्पन्न होते हैं। यह वर्णन भावलेश्या की अपेक्षा से हैं । ०४.३१ पुष्पलेसं ( पुष्पलेश्य )
-सम० सम २० । सू १३-१४ मूल-आरणे कप्पे देवाणं x x x जे देवा सातं विसातं xxx पुप्फ x x x पुप्फदेसं x x x पुप्फुत्तरवडेंसगं विमाणं देवत्ताए उववण्णा, तेसि णं देवाणं उक्कोसेणं वीसं सागरोवमाइ ठिई पण्णत्ता।
पुष्पलेश्य-आरणकल्प में एक विमान विशेष का नाम ।
आरणकल्प में कई देवता पुष्प आदि २०/२१ विमानों में उत्पन्न होते हैं । इन २०/२१ विमानों में पुष्पलेश्य नाम का भी एक विमान है । ०४.३२ फलिहवण्णलेस्सा ( स्फटिकवर्णलेश्या)
-षट० खं० १ । १ । पु २ । पृ० ६०६ टीका-x x x आउकाइओ, दव्वेण काउ-सुक्क-फलिहवण्णलेस्साओ वत्तव्वाओ। तेसिं चेव पज्जत्तकाले दव्वेण सुहुमआऊणं काउलेस्सा वा बादरआऊणं फलिहवण्णलेस्सा xxx।
अप्काय में द्रव्यतः कापोत-शुक्लस्फटिकवर्णलेश्या होती है। पर्याप्त बादर अपकाय में द्रव्यतः स्फटिकवर्णलेश्या होती है तथा सूक्ष्म पर्याप्त अपकाय में द्रव्यतः कापोत लेश्या होती है।
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