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लेश्या-कोश
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मूल (भग०) - सिणाए पुच्छा । x x x कतिसु लेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! एगए परमसुक्क लेस्साए होजा ।
मूल (जीवा० ) x x x अणुत्तरोववाइयाणं एगा परमसुक्कलेस्सा |
परमशुक्ललेश्या -- उत्कृष्ट शुक्ललेश्या ।
जिस प्रकार नक्षत्र और तारागण में चन्द्रमा श्रेष्ठ है; मणि मुक्ता, प्रवाल और रत्न के आगर के रूप में समुद्र श्रेष्ठ है इत्यादि ; उसी प्रकार आचरणों में ब्रह्मचर्य सबसे विशुद्ध है । इस उपमा प्रकरण में लेश्याओं में सबसे विशुद्ध परमशुक्ललेश्या कही गई है ।
परमशुक्ललेश्या स्नातक निर्ग्रन्थों में और अनुत्तरोपपातिक विमानों के देवों में होती है ।
- ०४ २६ पसत्थलेस्सा ( प्रशस्तलेश्या )
जह सुरहिकुसुमगंधो, गंधवासाण पिस्समाणाणं । एत्तो वि अनंतगुणो, पसत्थलेस्साण तिन्हं पि ।। जह बूरस्स व फासो, नवणीयस्स व सिरीसकुसुमाणं । एत्तो वि अनंतगुणो, पसत्थलेस्साण तिन्हं पि ॥
प्रशस्त लेश्या अर्थात् शुभ लेश्या । तेजो, पद्म और शुक्ल — इन तीन लेश्याओं को प्रशस्तलेश्या कहा गया है । इन द्रव्यलेश्याओं की सुगन्ध सुगन्धित पुष्प और पीसे जा रहे चन्दनादि की सुगन्ध से अनन्तगुणी होती है कोमलता बूर नामक वनस्पति, नवनीत और शिरीष पुष्प अनन्तगुणी होती है ।
तथा इनकी स्पर्शकी कोमलता से भी
०४ ३० पाओग्गलेसाहि ( प्रायोग्य लेश्या )
- उत्त० अ ३४ । गT १७-१६
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टीका x x x णेरइया असंजदसम्माइठिणो पढम पुढविआदि जाव छट्ठी पुढवि पंज्जवसाणासु पुढवीस हिदा कालं काऊण माणुसे चैव अप्पप्पणी पुढवि- पाओग्गलेस्साहि सह उत्पजंति त्ति
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-- षट्० १ । १ । पु २ । पृ० ५११
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