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- तेजु लेश्या स्वयं में अजीव है। अर्थात् लब्धि योग्य पुद्गल विशेष है। तेजु लब्धि के साथ लेश्या शब्द का प्रयोग सहेतुक प्रतीत होता है।
मनुष्य और तिर्यच में द्रव्य लेश्या और भाव लेश्या दोनों बदलती है। नारकी और देवता में द्रव्य लेश्या व भाव लेश्या नहीं बदलती किन्तु अवस्थित रहती है, फिर भी दूसरी लेश्या के द्रव्य के सम्पर्क होने पर उनकी लेश्याए तदाकार बन जाती है और इस प्रकार छहों लेश्याए घटित होती है। अतः सातवीं नारकी में सम्यक्त्व प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं है ।
अस्तु बौद्ध साहित्य में भी रंगों के आधार पर छः अभिजातियां निर्धारित है। वे इस प्रकार है। १-कृष्णाभिजाति
४-हरिद्राभिजाति २-नीलाभिजाति
५-शुक्लाभिजाति ३-लोहिताभिजाति
६-परमशुक्लाभिजाति लेश्याओं का वर्गीकरण छः अभिजातियों की अपेक्षा महाभारत के वर्गीकरण के अधिक निकट है । सनत्कुमार के शब्दों में प्राणियों के छः वर्ग है
१-कृष्ण
४-रक्त २-धन
५-हारिद्र ३--नील
६-शुक्ल इनमें कृष्ण, नील और धूम्र वर्ण का सुख मध्यम है, सम वर्ण अधिक सहनीय है, हारिद्र वर्ण सुखकर है और शुक्ल वर्ण सुखप्रद है ।
लेश्या के रंगों तथा महाभारत के वर्ण निरूपण में बहुत साम्य है। रंगों के प्रभाव की व्याख्या समग्न दर्शन साहित्य में प्राप्त है। पर वस्तु स्थिति यह है कि लेश्या का जितना सूक्ष्म व तल-स्पर्शी निरुपण जेन वाङमय में मिलता है, उतना विशद व गम्भीर विवेचन अन्यत्र कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। ___ मानसिक परिणामों की तरतमता के आधार पर प्रत्येक लेश्या के अनेक परिणमन होते रहते हैं। .. चैतन्य-केन्द्र प्रेक्षा के साथ रंगों के ध्यान को लेश्या ध्यान कहते हैं। रंग चित्त को बहुत प्रभावित करता है। इस दृष्टि से लेश्या ध्यान या चमकते हुए १. दीर्घ निकाय १, २ । पृ० १६, २० २. महाभारत, शान्ति पूर्व २८, ३३
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