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विशिष्ट तपस्या करने से बालतपस्वी, अनगार तपस्वी आदि को तेजो लेश्या रूप तेजोलब्धि की प्राप्ति होती है। देवताओं में भी तेजो लेश्या लब्धि होती है। यह तेजो लेश्या प्रायोगिक द्रव्य लेश्या के तेजो लेश्या भेद से भिन्न प्रतीत होती है। यह तेजो लेश्या दो प्रकार की होती है-(१) शीतोष्ण तेजो लेश्या तथा (२) शीतल तेजो लेश्या। शीतोष्ण तेजो लेश्या ज्वाला दाह पैदा करती है, भस्म करती है। आज कल के अणबम की तरह इस में अंग, बंग इत्यादि १६ जनपदों का घात, वध, उच्छेद तथा भस्म करने की शक्ति होती है।
___ शीतल तेजो लेश्या में ऊष्ण तेजो लेश्या से उत्पन्न ज्वाला दाह को प्रशान्त करने की शक्ति होती है। वैश्यायण बालतपस्वी ने गोशालक को भस्म करने के लिए शीतोष्ण तेजो लेश्या निक्षिप्त की थी। भगवान महावीर ने शीतल तेजो लेश्या छोड़ कर उसका प्रतिघात किया था। निक्षेप की हुई तेजो लेश्या का प्रत्याहार भी किया जा सकता है ।
तेजो लेश्या जब अपने से लब्धि में अधिक बलशाली पुरूष पर निक्षेप की जाती है तब वह वापस आकर निक्षेप करने वाले के भी ज्वाला-दाह उत्पन्न कर सकती है तथा उसको भस्म भी कर सकती है।
यह तेजो लेश्या जब निक्षेप की जाती है तब तैजस शरीर का समुद्घात करना होता है तथा इस तेजो लेश्या के निर्गमन काल में तेजस शरीर नाम कर्म का परिशात (क्षय ) होता है। निक्षिप्त की हुई तेजो लेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं ( देखे ·२५, ६६ ४, ६६ १४, ६६ १५)
कृष्णलेश्या से परिणत जीव निर्दय, कलहप्रिय, वैरभाव की वासना से सहित, चोर, असत्यभाषी, मधु-मांस-मद्य में आसक्त, जिनोपदिष्ट तत्व के उपदेश को न सुनने वाला और असदाचरण में अडिग रहता है ।
कृष्णादि छओं लेश्याओं में से प्रत्येक अनन्तभाववृद्धि आदि छह वृद्धियों के क्रम से छह स्थानों में पतित है ।
कृष्णलेश्या वाला जीव संक्लेश को प्राप्त होता हुआ अन्य किसी लेश्या में परिणत नहीं होता, किन्तु स्वस्थान में ही अनन्तभागवृद्धि आदि छह वृद्धियों से वृद्धिंगत होकर स्थानसंक्रमण करता हुआ स्थित रहता है। अन्य लेश्या में परिणत वह इसलिए नहीं होता, क्योंकि उससे निकृष्टतर अन्य कोई लेश्या नहीं है। वही यदि विशुद्धि को प्राप्त होता है तो अनंतभाग हानि आदि छह हानियों से
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