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( 131 ) अस्तु दिव्य तेज के बाद दिव्य लेश्या का प्रयोग कुछ विशेष महत्वपूर्ण एवं दार्शनिक प्रतीत होता है।
सभी अवसर्पिणियों में हुंडासर्पिणी अधम ( निकृष्ट ) है। उसमें उत्पन्न तीर्थङ्करों का शिष्य परिवार यग के प्रभाव से दीर्घ संख्या से हटकर हीनता को प्राप्त हुआ है। मिथ्यादृष्टि जीव स्वस्थान-स्वस्थान, वेदना समुदघात, कषायसमुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद-इन पांच अवस्थाओं के साथ समस्त लोक में रहते हैं। इन पांचों अवस्थाओं में कृष्णादि छओं लेश्याओं का सद्भाब है। कतिपय आचार्यों की यह मान्यता है कि देच नियम से मूल शरीर में प्रविष्ट होकर ही मरण को प्राप्त होते हैं। दर्शन मोहनीय कर्म की क्षपणा चारों ही गतियों में संभव है। कारण यह है कि उन गतियों में उत्पत्ति के कारण भूत लेश्या रुप परिणामों के होने में वहाँ किसी प्रकार का विरोध नहीं है। उपशान्त कषाय का प्रतिघात दो प्रकार से होता है-भवक्षय के निमित्त से और उपशान्त कषाय के समाप्त होने से। उपशान्त काल के क्षय से गिरता हुआ वह उपशान्त कषाय वीतराग लोभ में ही गिरता है क्योंकि सूक्ष्म साम्परायिक गुणस्थानों को छोड़कर अन्य किसी गुणस्थान में जाना सम्भव नहीं है।
'बृहद्रव्य संग्रह' की ब्रह्मदेव विरचित टीका में तेजस समुद्धात (तेजोलेश्या) के विषय में कहा है कि "अपने मन के लिए अनिष्ट कर किसी कारण को देख कर जिस संयमी महामुनि को क्रोध उत्पन्न हुआ है उसके मूल शरीर को न छोड़ कर जो सिन्दुर के समान वर्ण वाला, बारह योजन दीर्घ, सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मूल विस्तार से व नौ योजन प्रमाण अग्न विस्तार से सहित काहल के समान आकृति वाला पुरूष बायें कन्धे से निकलकर बायीं ओर प्रदक्षिणा पूर्वक हृदय में स्थित विरुद्ध वस्तु को जलाकर उस संयमी के साथ द्वीपायन मुनि के समान स्वयं भी भस्मसात् हो जाता है, उसे अशुभ तेजस समुद्घात ( उष्ण तेजो लेश्या ) कहा जाता है ।
द्रव्य देश्या प्रायोगिक तथा द्रव्य लेश्या विरसा के पुद्गलों में परस्पर में क्या समानता अथवा भिन्नता है। इस सम्बन्ध में लेश्या कोश के तृतीय खण्ड में विस्तृत विवेचन करने का विचार है । ( देखें '३ )
१. षट्० प्र० ४ । पृ० २६-३१ । टीका धवला २. वृहद् टीका गा १८ । पृ० २२, २३
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