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हैं। और भावकर्म चैतन्य के परिणामरूप क्रोधादि भाव है। कर्मकाण्ड में कहा है
पुग्गलपिंडो दव्वं तम्सत्तो भावकम्मं तु ।।६।।
अर्थात् पुद्गल के पिंड को द्रव्यकर्म कहते हैं और उसमें जो शक्ति है उसे भावकर्म कहते हैं । उक्त गाथा को जीवतत्वप्रदीपिका की टीका में लिखा है
पिण्डगतशक्तिः कार्य कारणोपचारात् शक्तिनिताज्ञानादि भावकम भवति ।
उस पुद्गल पिण्ड में रहने वाली फल देने की शक्ति भावकर्म है। अथवा कार्य में कारण के उपचार से उस शक्ति से उत्पन्न अज्ञानादि भी भावकर्म है ।
लेश्या जैनदर्शन का महत्वपूर्ण विषय है। जहाँ लेश्या है वहाँ किसी न किसी प्रकार की क्रिया आवश्यक है। जहाँ लेश्या परिणाम नहीं है वहाँ किसी भी प्रकार की क्रिया सम्भव नहीं है। सलेशी जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं। अलेशी जीव अक्रिय होते हैं, सक्रिय नहीं होते हैं। सलेशी नारकी सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं। सलेशी नारकी की तरह दण्डक के सभी सलेशी जीव सक्रिय होते हैं, अक्रिय नहीं होते हैं । ( देखो भग० श ४१ । उ १ । सू १२, १७, १६)
उपयोग जीव का मौलिक गुण है तथा उसका लक्षण है और सभी सलेशी व अलेशी जीवों में पाया जाता है । कहा है
"अलेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयोज्ञयः-दृश्ययोः केवलं ज्ञानम्, दर्शनं च उपयुञानस्य अपरिस्पन्दोऽप्रतिरोधां जीवपरिणामविशेषस्तवकरणम् ।"
-भग० श १ । उ ३ । सू १३० । टीका
अर्थात् अलेशी सर्वज्ञ का केवलज्ञानोपयोग तथा केवलदर्शनोपयोग सर्वथा अपरिस्पन्दात्मक अकरणवीर्य वाला अर्थात् सब प्रकार की क्रिया से रहित होता है। सलेशी अप्रमतसंयत के भी माया प्रत्ययि की क्रिया होती है। तेजोलेश्या ( तेजोलब्धि ) वाले जीव मिथ्यादृष्टि भी हो सकते हैं तथा सम्यग्दृष्टि भी।
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