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तत्त्वार्थ सूत्र में इन औदयिक भावों का निर्देश इस प्रकार है-गति ४, कषाय ४, लिंग ( वेद ) ३, मिथ्या दर्शन १, अज्ञान १, असंयत १, असिद्धत्व १, और लेश्या ६ । ये सब २१ हैं ।
तत्त्वार्थ की अपेक्षा यदि षट् खंडागम में (१२) राग, (१३) द्वेष, (१४) मोह और (२२) अविरत ये चार भाव अधिक है तो तत्त्वार्थ सूत्र में षट्खंडागम की अपेक्षा 'असिद्धत्व अधिक है।
षटखंडागम और जीव समास दोनों ग्रन्थों में ज्ञातव्य के रूप में निर्दिष्ट उन चौदह मार्गणाओं का उल्लेख समान शब्दों में इस प्रकार किया गया है
गइ इदिए काए जोगे वेदे कसाए णाणे संजमे दंसणे लेस्सा भविय सम्मत्त सण्णि आहारए वेदि ।
-षट् ० खं० १, १, ४ । पु० १ गइ इदिए य काए जोगे वेए कसाय नाणे य । संजय दंसण लेस्सा भव सम्मे सन्नि आहारे ।
-जीव समास गा ६
विशेषता इतनी है कि षट्खंडागम में जहाँ इनका उल्लेख गद्यात्मक सूत्र में किया गया है, वहाँ जीव समास में वह गाथा के रूप में हुआ है।
गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, लेश्या, संयम, दर्शन, ज्ञान, भवि, सम्यक्त्व, आहार, संज्ञी-ये चौदह मार्गणा है।
जैसे अग्नि में प्रतप्त लोहे का गोला सादा, लाल अग्निमय हो जाता है वैसे ही निगोद रूप एक शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन जान लेना चाहिए। एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात निगोद जीवों का शरीर दृष्टिगोचर हो नहीं होता अनंत निगोद के शरीर ही दृष्टिगोचर हो सकते हैं। सुई की नोक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनंत-अनंत जीव होते हैं।
कर्म के दो भेद हैं-द्रव्यकर्म और भावकर्म । द्रव्यकर्म के मूल भेद आठ हैं। ये सब पुद्गल के परिणाम रूप है। क्योंकि जीव की परतन्त्रता में निमित्त होते १. तत्त्वार्थ ० अ २ । सू ६
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