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( ६ )
गोया ! जंबुद्दीवे दीवे भारदेवासे इमीसे ओसप्पिणीर ममं एगवीसं वाससहस्साइं तित्थे अणुसज्जिस्सति ।
-भग० श २० / उ ८८ /सू ७२
इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में ( श्रमण भगवान महावीर स्वामी का तीर्थ ) मेरा तीर्थ इक्कीस हजार वर्ष तक चलेगा |
(ढ) केवल ज्ञान के उत्पन्न होने के बाद के अतिशय
जोयणसयं समन्ता, मारीइ विवजिओ देसो ॥ ३२ ॥ जत्तो ठवेइ चलणे, तत्तो जायन्ति सहसपत्ताई फलभरनमिया य दुमा, साससमिद्धा मही होइ ॥ ३३॥ आयरिससमां धरणी, जायइ इह अद्धमागही वाणी रए य निम्मलाओ, दिसाओ रय-रेणुरहियाओ ॥ ३४ ॥
- पउच० अधि २
भगवान् महावीर के चारों ओर सौ योजन तक का प्रदेश संक्रामक रोगों शून्य रहता था । जहाँ पर उनके चरण पड़ते थे वहाँ सहस्रदल कमल निर्मित हो जाता था, वृक्ष फलों के भार से झुक जाते थे, पृथ्वी धान्य से परिपूर्ण और जमीन दर्पण के समान स्वच्छ हो जाती थी । अभागधी वाणी उनके मुख से निकलती थी ।
धूल व गर्द से रहित दिशाएँ शरत्काल की भाँति निर्मल हो जाती थीं ।
(ण) वर्धमान महावीर की अवगाहना
त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में अवगाहना ।
तिविट्ठू णं वासुदेवे असीइं धणूई उड्ढं उच्चत्तणं होत्था ।
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त्रिपृष्ठ वासुदेव की अवगाहना अस्सी धनुष की थी । नोट- उनके बड़े भाई अचल बलदेव की अवगाहना उनके समकक्ष थी । अयले णं बलदेवे असीइं धणूई उड्ढं उच्चत्तेणं होत्था |
त्रिपृष्ठ वासुदेव ८०००००० वर्ष महाराज पद पर रहे ।
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- सम० सम ८० / सू २
(त) महाराज की पदवी
तिविट्ठू णं वासुदेवे असीइं वाससय सहस्साइं महाराया होत्था |
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- सम० सम ८० / सू ३
- सम० सम ८० / सू ४
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