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गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एग वाससहस्सं पुव्वगए अणुसजिस्सइ ।
-भग० श २०/७ ८ सू ७० इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में मेरा ( वर्धमान ) पूर्वगत श्रुत एक हजार वर्ष तक रहेगा। जिनांतर में कालिक श्रुत
एएसिणंभंते ! तेवीसाप. जिणंतरेसुकस्स कहिं कालियसुयस्स चोच्छेदे पण्णत्तं?
गोयमा। एएसुणं तेवीसाए जिणंतरेसु पुरिमपच्छिमएसु अट्ठसु-अहसु जिणंतरेसु एत्थ णं कालियसुयस्स अव्वोच्छेदे पण्णत्ते, मज्झिमएस्सु सत्तसु जिणंतरेसु एत्थणं कालियसुयस्स चोच्छेदे पण्णत्ते, सव्वत्थ वि णं वोच्छिण्णे दिहिवाए।
-भग श० २०/उ ८/सू ६६ तेईस जिनांतरों में पहले आठ और पिछले आठ जिनान्तरों में कालिक श्रुत का अव्यवच्छेद कहा है और मध्य के सात जिनान्तरों में कालिक श्रुत का व्यवच्छेद हुआ है । दृष्टिवाद का व्यवच्छेद तो सभी जिनान्तरों में हुआ है ।
नोट-तेइसवाँ जिनांतर-पार्श्वनाथ और वर्धमान तीर्थंकर का है। उनके अंतर में कालिक श्रुत का अव्यवच्छेद कहा है ।
नोट-विशिष्ट रूप से जो कहा जाय, उसे प्रवचन कहते हैं अर्थात् आगम को प्रवचन कहते हैं। तीर्थकर भगवान प्रवचन के प्रणेता होते है। इसलिये वे प्रवचनी कहलाते हैं । कहा है
प्रकर्षणोच्यतेऽभिधेयमनेनेति प्रवचनम्-आगमा (ज) भगवान महावीर के तीर्थ में तीर्थंकर गोत्र-उपार्जन करने वाले जीव
समणस्स णं भगवतो महावीरस्स तित्थंसि णवहिंजीवेहिं तित्थगरणामगोत्ते कम्मे णिव्वत्तिते तंजहा-सेणितेणं, सुपासेणं, उदातिणा, पोट्टिलेणं अणगारेणं, दढाउणा, संखेणं, सततेणं, सुलसाए साविताते, रेवतीते।।
-ठाण० स्था ६/सू ६० श्रमण भगवान महावीर के तीर्थ में नव जीवों ने तीर्थंकर नाम-गोत्र कर्म का उपार्जन किया, यथा
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