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कुल के इस अहं से मरीचि ने नीच गोत्रकर्म उपार्जित किया। यही कारण था कि महावीर तीर्थकर होते हुए भी पहले देवानंदा ब्राह्मणी के गर्भ में आये। जबकि तीर्थ कर का क्षत्रिय कुल में जन्म लेना अनिवार्य होता है ।
___ महावीर के कुल सत्ताईस भवों का वर्णन मिलता है, जिसमें दो भव मरीचि-भव के पूर्व के हैं और शेष बाद के । सत्ताईस भवों में प्रथम भव नयसार कर्मकार का था। इस भव में महावीर ने किसी तपस्वी मुनि को आहार दान दिया था और प्रथम बार सम्यग्दर्शन प्राप्त किया था।
सत्ताईस भवों में महावीर ने जहाँ चक्रवतित्व और वासुदेवत्व पाया; वहाँ उन्होंने सप्तम नरक तक का भयंकर दुःख भी सहा। पच्चीसवें भव में तीर्थ करत्व प्राप्ति के बीस निमित्तों की आराधना करते हुए तीर्थ कर गोत्र नामकर्म बांधा। छब्बीसवें भव में प्राणत नामक दशवें स्वर्ग में रहे और सत्ताईसवें भव में महावीर के रूप में जन्म लिया ।
भगवान ऋषभदेव की सेवा में विहरण करते हुए मरीचिका काफी समय बीत चुका। एक बार वह रोगाक्रांत हुआ। उसकी परिचर्चा करने वाला कोई न था ; अतः वेदना से पराभूत होकर उसने स्वयं के लिए शिष्य बनाने का सोचा। संयोग की बात थी एक बार भगवान ऋषभदेव देशना (प्रवचन) दे रहे थे। कपिल नामक राजकुमार भी परिषद् में उपस्थित था ! उसे वह उपदेश रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ। उसने इधर-उधर अन्य साधुओं की ओर दृष्टि दौड़ाई। सभी साधुओं के बीच विचित्र वेशवाले उस त्रिदंडी मरीचि को भी देखा। वह वहाँ से उठकर उसके पास आया। धर्म का मार्ग पूछा तो मरीचि ने स्पष्ट उत्तर दिया-“मेरे पास धर्म नहीं है । यदि तू धर्म चाहता है तो प्रभु का ही शरण ग्रहण कर । वह पुनः भगवान ऋषभदेव के पास आया । और धर्मश्रवण करने लगा। किन्तु अपने दूषित विचारों से प्रेरित होकर वह वहाँ से पुनः उठा। और मरीचि के पास जाकर बोला--- "क्या तुम्हारे पास जैसा-तैसा भी धर्म नहीं है ? यदि नहीं है तो फिर यह संन्यास का चोगा कैसे ?"
जिस प्रकार चक्रवर्तियों में प्रथम चक्रवर्ती भरत हुआ उसी प्रकार श्रेयांसनाथ के तीर्थ में तीन खण्ड को पालन करने वाले नारायणों में उद्यमी प्रथम नारायण हुआ।
इस जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में एक मगध नाम का देश है, उसमें राजगृह नाम का नगर है जो कि इन्द्रपुरी से भी उत्तम है। किसी समय विश्वभूति राजा उस राजगृह नगर का स्वामी था । उसकी रानी का नाम जैनी था। इन दोनों के एक पुत्र था जो कि सबके लिए आनन्ददायी स्वभाव होने के कारण विश्वनंदी नाम से प्रसिद्ध था। विश्वभूति के विशाखभूति नाम का छोटा भाई था। उसकी स्त्री का नाम लक्ष्मणा था और उन दोनों के विशाखनन्दी नाम का पुत्र था।
विश्वभूति अपने छोटे भाई को राज्य सौंपकर तप के लिए चला गया और समस्त राजाओं को नम्र बनाता हुआ विशाखभूति प्रजा का पालन करने लगा।
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