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उत्तर में वह मूल तथा उत्तरगुण-सम्पन्न साधु-धर्म का ही उपदेश करता। जब उसे जनता यह पूछती कि तुम उसके अनुसार आचरण क्यों नहीं करते, तो वह अपनी असमर्थता स्वीकार करता। उसके उपदेश से प्रेरित होकर यदि कोई भव्य दीक्षित होना चाहता तो वह उसे भगवान के समवसरण में भेज देता और भगवान उसे दीक्षा-प्रदान कर देते।
___ कालान्तर में कपिल नामक एक राजकुमार को भी उसने अपना शिष्य बनाया । निमग्न विचारों में निमग्न मरीचि ने उत्सूत्र प्ररूपणा करते हुए कहा-वहाँ भी धर्म है और यहाँ भी। इस मिथ्यात्व पूर्ण संभाषण से उसने उत्कृष्ट संसार बढ़ाया। कपिल को पच्चीस तत्वों का उपदेश देकर अलग मत की स्थापना की। जैन पुराणों में यह भी माना गया है कि आगे चलकर कपिल का शिष्य आसूरी व आसूरी का शिष्य सांख्य बना । कपिल व सांख्य ने मरीचि द्वारा बताये गये उन पच्चीस तत्वों की विशेष व्याख्या की जो एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में प्रसिद्ध हुई। कपिल और सांख्य उस दर्शन के विशेष व्याख्याकार हुए है। अतः वह दर्शन भी कपिल दर्शन या सांख्य दर्शन के नाम से विश्रत हुआ। वस्तुः मरीचि इसका मूल संस्थापक था । भावी तीर्थंकर कौन
__ भरत ने एक बार भगवान ऋषभदेव से पूछा - प्रभो! इस परिषद् में ऐसी भी कोई आत्मा है, जो आपकी तरह तीर्थ की स्थापना कर इस भरत को पवित्र करेगी।
भगवान ने उत्तर दिया-"तेरा पुत्र मरीचि प्रथम त्रिदण्डी तापस है। इसकी आत्मा अब तक कर्ममल से मलिन है । धर्म ध्यान और शुक्लध्यान के अवलम्बन से क्रमशः वह शुद्ध होगी। भरत क्षेत्र के पोतनपुर नगर में इसी अवसर्पिणी काल में वह त्रिपृष्ठ नामक पहला वासुदेव होगा। क्रमशः परिभ्रमण करता हुआ, वह पश्चिम महा विदेह में धनंजय और धारिणी दम्पती का पुत्र होकर प्रिय मित्र नामक चक्रवर्ती होगा। अपने संसार परिभूमण को समाप्त करता हुआ वह इसी चौबीसी में महावीर नामक चौबीसवां तीर्थ कर होकर तीथ की स्थापना करेगा तथा स्वयं सिद्ध, बुद्ध व मुक्त बनेगा।"
कुल का अहं-अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर भरत बहुत आह्वादित हुए। उन्हें इस बात से भी अत्यधिक प्रसन्नता हुई कि उनका पुत्र पहला वासुदेव, चक्रवर्ती व अन्तिम तीर्थ कर होगा। परिव्राजक मरीचि को सूचना प बधाई देने के निमित्त भगवान के पास से वे उसके पास आये। भगवान से हुए अपने वार्तालाप से उन्हें परिचित किया।
फलस्वरूप मरीचि को इससे अपार प्रसन्नता हुई । वह तीन ताल देकर आकाश में उछला और अपने भाग्य को बार बार सराहने लगा। उच्च स्वर से बोलने लगा-मेरा कूल कितना श्रेष्ठ है। मेरे दादा प्रथम तीर्थ कर है। मेरे पिता प्रथम चक्रवर्ती है । मैं पहला वासुदेव होऊँगा व चक्रवर्ती होकर अन्तिम तीर्थ कर होऊंगा। सब कुलों में मेरा ही कुल श्रेष्ठ है।
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