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( ४१६ ) जन्मकूप का दृष्टांत व . जम्बूस्वामी तथा विद्युञ्चर की प्रव्रज्या
भागते-भागते वह एक विधि-विहित जन्म रूपी रूप में जा गिरा जो कुलरुपी वृक्ष की जड़ों के जाल से आच्छन्न था। कूप के मध्य में ही वह उत्कृष्ट आयुरुपी वल्ली से लटक गपा।
वहाँ उसे पंचेन्द्रिय रुपी मध के बिंदु का सुख प्राप्त हुमा किन्तु उस वेलि को काल द्वारा कृष्ण और श्वेत वर्णो से विभिन्न रात्रि और दिवस रुपी चुहों ने काट डाला । उस वेलि के कटने से वह जीव नरक रूपी भयंकर सर्प के मुख में जा पड़ा, जहां उसे पाँच प्रकार के घोर दुःखों को भोगना पड़ा।
कुमार के इस दृष्टांत को सुनकर उन सभी श्रोताओं अर्थात कुमार की माता, चोर और मरकत-मणि तथा सुवर्ण के समान मनोहर वर्णवाली उन श्रेष्ठ कन्याओं की धर्म में श्रद्धा उत्पन्न हो गयी। ____ इसी समय आकाश में सूर्य का उदय हो गया और जम्बूस्वामी घर से निकल पड़े।
राजा कूणिक ने गजगामी जम्बूस्वामी का निष्क्रमण-अभिषेक किया। कुमार रत्नों की किरणों से स्फुरायमान तथा श्रेष्ठ मंगल द्रव्यों से भरी हुई शिविका में आरुद हुए। वे तेजस्वी कुमार नाना कल्प वृक्षों के पुष्पों से शोभायमान विपुलाचल पर्वत के मस्तक पर पहुँचकर, अपने पुत्र और स्त्रियों के मोह का परित्याग करने वाले ब्राह्मण, वणिक् तथा क्षत्रिय पुत्रों सहित एवं उस विद्यच्चोर तथा उसके पाँच सो साथी चोरों सहित वीर जिनेंद्र के पास धर्मनंदी सुधर्माचार्य से तप ग्रहण करेंगे, वा श्रेष्ठ यति होवेंगे और फिर सुधर्म आचार्य के कर्मों का बिनाश कर निर्वाण प्राप्त कर लेने पर, वे जिनेंद्र भगवान के चरणों में हाथ जोड़कर श्रुत केवली होवेंगे। •७५ वर्धमान महावीर-पूर्व भव प्रसंग-उत्तम पुराण से
पुरूरवाः सुरः प्राच्यकल्पेऽभूद्भरताप्मजः ।
मरीचिब्रह्म कल्पोत्थस्ततोऽभूज्जटिलद्विज ॥५३४॥ भगवान महावीर स्वामी का जीव पहले पुरुरवा नामक भील था, फिर पहले स्वर्ग में देव हुआ, फिर भरत का पुत्र मरीचि हुआ, फिर ब्रह्म स्वर्ग में देव हुआ फिर जटिल नाम का ब्राह्मण हुआ।
सुरः सौधर्म कल्पेऽनु पुष्यमित्रद्विजस्ततः।
सौधर्मजोऽमाएस्ततस्माद्विजन्माग्निसमाह पय ॥५३५ ।
फिर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ, फिर पुण्य मित्र नाम का ब्राह्मण हुआ, फिर सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ, फिर अग्निसम नामका ब्राह्मण हुआ।
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