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( ४१५ ) इस प्रकार जम्बूस्वामी अंतिम केवली होवेंगे और मेरे विशाल वंश रूपी शिष्य परम्परा की उन्नति होगी। •७ जन्मकूप का दृष्टांत व जम्बूस्वामी तथा विद्युञ्चर की प्रव्रज्या
णिषडिउजम्म - कूद विहि - विहियइ । कुल- तरु - मूल- जाल- संपिहियइ ॥ लंबमाणु परमाउसु - वेल्लिहि । पंचिदिय - महु - बिंदु सुहेल्लिहि ॥ काले कसण - सिएहिं विहिण्णी। सा दियहुंदुरेहिं विच्छिण्णी ॥ णिषडिउ णरय-भीमपिसहर-मुहि । पंच - पयार - घोर • दाविय - दुहि ॥ इय आयण्णिघि तहु आहासिउ । सम्वहिं धम्मि स - हियउ णिवेसि ॥ जणणिइ तकरेण घर - कण्णहिं। मरगय · मणहर - कंचण षण्णहि ॥ तां अम्बरि उग्गमिउ दिवायरु । जम्बूदेउ पराइउ सायरु। कृणिएण राएँ गय - गामिहि ।। णिक्खवणाहिसेउ किउ सामिहि । सिषियहि रयण - किरण-विप्फुरियहि । आरुढउ वर • मंगल - भरियहि ।। णाणा - सुर - तरु - कुसुम - पसत्थई । विउलि विउल - धरणीहर - मत्थइ ।। बंभण - वणियहिं पत्थिव - पुत्तहिं । पुत्त - कलत्त - मोह - परिचत्तहि ।। विज्जूचोरें समउ स- तेयउ। खोरहें - पंच - सएहि समेयउ॥ णिचाराहिय . वीर - जिणिदहु ।
पासि सधम्माहु धम्माणंदहु॥ घत्ता-तउ लेसह होसइ पर-जइ होएप्पिणु सुयकेवलि। हय-कम्मि-सुधम्मि सुणिव्वुयइ जिण-पय विरइय पंजलि ॥
-वीर जि. संधि ४/कड ८
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