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अहिंसयं सव्वपयाणुकंपी समायरंता,
तमायदंडे ह
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( ४०५ )
उस अहिंसक, सभी प्राणियों की अनुकम्पा से युक्त धर्म में स्थित और कर्म विवेक के हेतु को आत्म पीड़क और हिंसक आचरण करने वाले के बराबर बताते हो - यह तुम्हारे अज्ञान की प्रतिच्छाया ( द्योतक) ही है ।
७४ जंबुस्वामी १ पूर्वभव
धम्मे ठियं अबोहिए
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आहिडिवि मंडिवि सयल महि धम्मे रिसि परमेसरु । ससिरिहि विउलरिहि आइयउ काले वीरु-जिणेसरु ॥ सेणिड गड पुणु वंदण-हत्ति । समवसरणु जोयंतउ भक्ति ॥ मगहा हिमा घोस ।
पुणु देवचरम- केवलिको
होइ ॥
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कम्मविवेग हेउ ।
पडरूवमेयं ॥
गणेसरुभास |
भारह- वरिसि पहु सु बिज्जुमालि सुरु दीसह ॥ भूसिउ अच्छराहि गुणवंतहि । बिज्जुवेय बिज्जुलिया - कंतहि ॥ पिक्कड सालि छेत्तु जलि ओसिहि । मय-मन्तउ करिंदु बहु-मय- णिहि ॥ देव दिष्ण जंबूद्दल दायक । इय- सिणिय- दंसणि संजाइवर || अरुहयास वणियद्धु घण - थणिवहि । सुरवर जिणदासिहि सेट्ठिणिषहि ॥ सप्तम दिवसि गब्भि
जंबू सुरड पुज
थारसह ।
पावेसह ॥
जंबूसामि णाम इधु होसह ।
तकालइ
frogs
जाएसइ ॥
- वीरजि० संधि ४ / कड १
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