________________
( ३६८ ) संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे विणल्समाणे खजमाणे छिजमाणे भिजमाणे लुप्पमाणे विलुप्पमाणे' उम्मग्गपडिषण्णे सप्पहषिप्पणठे मिच्छत्सबलाभिमूए अट्ठविहकम्मतमपडल-पडोच्छण्णे बहूहिं अहि य (हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पट्ठपसिण) वागरणेहि य चाउरंताओ संसारकताराओ साहत्थि नित्यारेइ। से तेण?णं देवाणुप्पिया! एवं बुच्चर-समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ॥४८॥
आगए णं देवाणुप्पिया! इहं महानिजामप? के णं देवाणुप्पिया! महानिजामए ?
समणे भगवं महावीरे महानिजामए । से केणढणं ( देवाणुप्पिया! एवं वुश्चह-समणे भगवं महाघोरे महानिजामए १)
एवं खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महाधीरे संसारमहासमुहे बहवे जीवे नस्समाणे विणस्समाणे (खजमाणे छिजमाणे भिजमाणे लुप्पमाणे) विलुप्पमाणे बुड्डमाणे निबुडमाणे उप्पियमाणे धम्ममईए नापाए निव्वाणतीराभिमुहे साहत्थि संपावेइ । से तेणढणं देवाणुप्पिया ! एवं वुश्वर--समणे भग महावीरे महानिजामप॥४९॥
उवा० अ७
[आजीविक संप्रदाय को त्यागकर सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक श्रमण भगवान महावीर की दृष्टि स्वीकार की है-यह बात गोशालक ने जानी और उसने सोचा कि आजीविकोपासक सद्दाल पुत्र को श्रमण नियन्थों की दृष्टि का त्याग कराकर फिर से आजीविक दृष्टि ग्रहण कराउं।
फलस्वरूप गोशालक आजीविक के संघ सहित पोलासपुर नगर में सद्दाल पुत्र के पास आया।
सद्दाल पुत्र श्रमणोपासक ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखकर आदर नहीं किया। उसे जनाया नहीं। आदर नहीं करता हुआ मौन रूप में खड़ा रहा ।
उसके बाद श्रमणोपासक सद्दाल पुत्र द्वारा नहीं आदरित, नहीं जाना हुआ और पीठ, फलक, शय्या, संथारे के लिए श्रमण भगवान महावीर का गुणकीर्तन करते हुए मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को इस प्रकार कहा
हे देवानुप्रिय ! महामाहण आये थे। तब उस सद्दालपुत्र श्रमणोपासक ने कहा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org