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( ३८६ ) '२७ छः विशाचर
तएणं तस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स अण्णदाकदाइ इमे छः दिसाचरा अंतियं पाउभवित्था, तंजहा-साणे, कणियारे, अच्छिदे, अग्गिवेसायण, अज्जुणे, गोमायुपुत्ते।
तए णं से छः दिसावरा अविहं पुव्वगयं मग्गदसमं 'सएहि-सएहिं' मतिदसणेहिं निज्जूहंति निज्जूहित्ता गोसालं मंखलिपुत्तं उवहठाइसु । तए गं से गोसाले मंखलिपुत्ते तेणं अट्ठगस्स महानिमित्तस्स...इमाई छ अणइक्कमणिजाई बांगरणाई वागरेति, तंजहा लाभ, अलाभ, सुह, हुक्ख, जीषियं, मरणंतहा।
-भग• श १५ । सू.५-६ गोशालक के पास छः दिशाचर आये (श्रावस्ती नगर के हालाहला नामक कुभारण की कुंभारायण में-) प्रथा शान, कलंद-कर्णिकाकार, अछिद्र, अग्निवेश्यायन और गोमायु पुत्र अर्जुन। इन हर दिसाचरों ने पूर्व श्रुत में कथित आठ प्रकार के निमित्त, नौवाँ गीतमार्ग तथा दसवाँ नृत्य मार्ग को अपने-अपने मति दर्शन से पूर्वश्रुत में से उद्धत कर मंखलि पुत्र का शिष्य भाव से आश्रय ग्रहण किया।
__ इसके बाद मंखलिपुत्र गोशालक, अष्टांग महानिमित्त के स्वल्प उपदेश द्वारा सभी प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को इन छह बातों के विषय में अनतिक्रमणीय ये जो अन्यथा असत्य न हो ये छह विषय ये है-लाभ, अलाभ, सुख, दुःख और जीवन और मरण । '२८ गोशालक के प्रसंग
तत्र 'अभ्यासाएमाणे' त्ति उपसर्ग कुर्वन् गोशालकवत्तेजो निसृजेत् 'से य तत्थ' त्ति तथ तेजस्तत्र-भमणे निसृष्टं महावीर इव नो क्रमते ईषत् नो प्रक्रमते प्रकर्षेण न प्रभवती त्यर्थः केवलं अंचिअंधियंति उत्पत निपतां पार्वतः करोति, ततश्चादक्षिणतः पार्श्वत् प्रदक्षिणा-पार्श्वभ्रमणमादक्षिणप्रदक्षिण्या तां करोति, ततश्चोर्ध्वम्-उपरिदिशि 'वेहासं' ति विहाय आकाशमित्यर्थः उत्पतति, उत्पत्य च 'से' ति तत्तेजः ततः भ्रमणशरीरसन्निधेस्तन्महात्म्यप्रति हतं सत् प्रति निपत्तते प्रतिनिवृत्त्य च तदेव शरीर कमुपसर्गकारिसंबंधि यतस्तन्निर्गतं तमनुदहन्-निसर्गानन्तरमुपतापयन् किं भूतं शरीरकं?-सह तेजसा वर्तमान-तेजोलब्धिमत् भस्म कुर्या दिति।
___अयमनोपस्यापि वीतरागस्य प्रभावो यत्परतेजो न प्रभवति, अत्रार्थे दृष्टांतमाह-'जहा बा' यथैव गोशालकस्य-भगवच्छिष्याभासस्य मङ्खल्यभिधानमंखपुत्रस्य, मंबश्व-चित्रफलकप्रधानो भिक्षुकविशेष। .
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