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( ३७६ ) . २ तं श्रुत्वा स्वामिशिष्यः सिंहो नामानुरागवान्। ..... गत्वैकान्ते रुदोदोच्चैः क्व धैर्य तारमागिरा ॥५४५॥
__-त्रिशलाका पर्व १.सर्ग भमण भगवान महावीर स्वामी के बंतेवासी 'सिंह' नामक के अनगार थे। वे प्रकृति से भद्रमौर विनीत थे। वे मालुकाकच्छ के निकट निरंतर बेला-बेला के तप से दोनों हाथ को ऊपर उठाकर याषत आतापना लेते थे। जब सिंह अनगार एक ध्यान को समाप्त कर दूसरा ध्यान प्रारम्भ करने वाले थे, उस समय उन्हें विचार उत्पन्न हुआ-'मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान महावीर स्वामी के शरीर में अत्यन्त दाहक और महापीडाकारी-रोग उत्पन्न हुआ है। इत्यादि यावत् वे बदमस्थावस्था में काल करेंगे, व अन्यतीर्थिक कहेंगे कि बेबदमस्थ अवस्था में कालधर्म को प्राप्त हो गये। इस प्रकार महामानसिक दुःख से पीरित बने हुए वे सिंह अनगार, आतापना भूमि से नीचे उतरे और मालुका कच्छ में प्रवेश करके आवेश पूर्वक अत्यन्त रुदन करने लगे।
'३ तथा रेषती भगवत भौषपदात्री, कथं १, किले कदा भगवतो मेण्ढिकग्राम नगरे विहरतः पित्तज्वरो दाह बहुलो षभूषलोहितवर्चश्च प्रावर्तत, चातुर्वर्ण्य' पण्याकरोति स्म यदुत गोशालकस्य तपस्तेजसा दग्ध शरीरोऽन्तः षण्मासस्य कालं करिष्यतीति, तत्र व सिंहनामा मुनिरातापनाऽसान एषममन्यत-मम धर्माचार्यस्य भगवतो महाषीरस्य ज्वर रोगो रुजति, ततोहा वदिष्यन्त्यन्यतीथिकाः यथा छमस्थ एष महावीरो गोशालक तेजोपहतः काल गतइति एवम्भूतभाषमाज नितमान समहादुःखखेदित शरीरो मालुकाकच्छाभिधानं विजन पनमनु प्रविश्य कुहुक हेत्येष महापनिना प्रारोदित, भगवांश्च स्थषिरैस्तया कार्योक्तषान्-हे सिंह । यस्खया व्यकस्पिन तद्भावि, यत इतोऽहं देशोमानि पोरश पर्षाणि केवलिपर्यायिं पूरायिष्यामि, ततो गच्छ त्वं नगर मध्ये, तत्र रेषत्यभिधानया गृहपतिपस्या मदर्थ के कूप्माण्डफलं शरीरे उपस्कते, न व ताभ्यां प्रयोजनं, तथाऽन्यदस्ति तत्गृहे परिवासितं मार्जाराभिधानस्य पायोनिवृत्तिकारक कुक्कुटमासकं बीजपूर ककटाहमित्यर्थः तदाहर, तेन नः प्रयोजनमित्येषमुक्तोऽसौ तथैव कृतवान् , रेवती च सबहुमान कृतार्थमात्मानं मन्यमाना पथायाचित तत्पात्रे प्रक्षिप्तवती, तेनाप्यानीय तद्भगवतो मध्ये विसृष्ट, भगवतापि वीतरागतयै घौदर कोष्ठके निक्षिप्तं, ततस्तत्क्षणमेव क्षीणरागो जाता जाता नन्दोयति वर्गो मुदितो निखिलो देवादिलोक इति ।
-ठाण• स्था हासू २६.1 टीका एक बार भगवान महावीर मेटिंकग्राम नगर में आए। वहाँ उनके पित्त-ज्वर का
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