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समंतभद्रसूरि ने वनवास स्वीकार किया, इसलिए उसे वनवासी गण कहा गया है।
चैत्यवासी शाखा के उद्भव के साथ एक पक्ष संविग्न, विधि मार्ग या सुविहित मार्ग कहलाया और दूसरा पक्ष चैत्यवासी ।
स्थानगवासी
इस सम्प्रदाय का उद्भव मूर्तिपूजा के अस्वीकार पक्ष में हुआ । विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने मूर्तिपूजा का विरोध किया और आचार की कठोरता का पक्ष प्रबल किया । इन्हीं लोंका शाह के अनुयायियों में से स्थानकवासी सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव हुआ ।
तेरापंथ
स्थानकवासी संप्रदाय के आचार्य श्री रघुनाथजी के शिष्य 'संतभीखणजी ( आचार्य भिक्षु ) ने विक्रम संवत् १८१७ में तेरापंथ का प्रवर्तन किया ।
दिगम्बर - परम्परा में भी अनेक संघ हो गए। उनके नाम ये है ।
१ – मूल संघ – इनके अन्तर्गत सातगण विकसित हुए ।
१ - देवगण
२ - सेनगण
१३ - देशीगण
४- सुरस्थगण
५- बालात्कारगण
६ - काणूर गण ७- निगमान्वय
२ - यापनीय संघ
३- द्राविड़ संघ
४ - काष्ठा संघ
५- माथुर संघ
विशेष जानकारी के लिए देखें- दक्षिण भारत में जैन धर्म, पृष्ठ १७३ से १८२
भगवान के चौदह हजार शिष्य प्रकरणकार ( ग्रंथकार ) थे ।
उस समय लिखने की
परम्परा नहीं थी । सारा वाङ्मय स्मृति पर आधारित था ।
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