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( २५४ ) केशी कुमार श्रमण भगवान पार्श्वनाथ के अनुयायी थे अतः उन्होंने चार महावत का उपदेश दिया। केशी श्रमण काभावस्ती नगरी से श्वेताम्बिका नगरी की ओर विहार
तएणं केसी कुमारसमणे अण्णया कयाइ पाडिहारियं पीढफलगसेजा संथारग पञ्चप्पिणइ सावत्थीओ नगरीओ कोहगाओ चेश्याओ पडिनिक्खमा पंचहि अणगारसएहिं जावविहरमाणे जेणेव केयइअद्ध जणपए जेणेष सेयषिया नगरी जेणेषमियषणे उजाणे तेणेष उवागच्छइ अहापडिरूवं डग्गह उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।
- राय. सू.१५७
अन्य कोई दिवस केशी कुमार श्रमण जांच किये हुए पीट-पाटिया-शय्या-संस्तारक वापस दिये और स्वयं पांच सो अनगारों के साथ श्रावस्ती से विहार किया।
सावत्थी नगरी से विहार कर घूमते घूमते वे केकयि अर्थदेश की सेयविया नगरी के मृगवन उद्यान में पधारे और वहाँ यथोचित अवग्रह स्वीकार कर संयम और तप से आत्माको भावित करने लगे।
तएणं से चित्ते सारही केसिस्स कुमार समणस्स अंतिए सम्म सोचा निसम्म हहतुढे तहेव एवं पयासी-एवं खलु भंते। अम्ह पएली राया अधम्मिए जाच सयस्स वि णं जणषयस्स नो सम्म करभरवित्ति पत्तेर, तंजाणं देवाणुप्पिया! पएसिस्स रण्णो धम्ममाइक्खेजा बहुगुणतर खल होजा पएसिस्स रण्णो तेसिं णं बहूणं दुपयचउप्पयमियपसुपक्खीसिरीसषाणं, तेसि च बहूर्ण समणमाहणभिक्खुयाणं तं जइ णं देषाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतरं होजा सयासपि य णं जणवयस्स।
-राय. सू १५६ केशी श्रमण की धर्मदेशना सुनकर हर्षित और संतोष को प्राप्त सारथि ने कहा कि है भगवन् ! हमारा राजा प्रदेशी अधार्मिक है और स्वयं देश का कार्य भार बराबर नहीं चलाता है। वह किसी भी श्रमण-माहण का या भिक्षुओं का आदर नहीं करता है । उनको वंदन-नमस्कार, सत्कार नहीं करता है तथा उनकी पर्युपासना नहीं करता है । और भमणमाहण के पास जाकर स्वयं के प्रश्नों का उत्तर नहीं पछता है। उसको केवली द्वारा प्ररूपित धर्मका लाभ नहीं मिल सकता है।
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