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( ३५३ )
जियको जियमाणे, जियमाए जियलोहे, जियणिद्द जितिदिए जियपरीसहे जीवियासमरणभयविप्यमुक्के तवप्पहाणे गुणप्पहाणे करणप्पहाणे चरणप्पहाणे निच्छयप्पहाणे अजव पहाणे मद्दचष्पहाणे लाघवप्पहाणे खंतिप्पहाणे गुन्तिप्पहाणे मुत्तिप्पहाणे विजप्पहाणे मंतप्पहाणे
- राय० सू १४७
उन्होंने क्रोध, मान, माया और लोभ पर विजय प्राप्त की थी । निद्रा, इन्द्रिय और परिषह को वशीभूत किया था। उनके जीवन में तप, चरण, करण, निग्रह, सरलता, कोमलता, क्षमा, निर्लोभता ये सब गुण प्रधान रूप में थे । तथा वे श्रमण विद्यावान मांत्रिक ब्रह्मचारी और वेद तथा नयके ज्ञाता थे । उनको सत्य, शौच आदि सदाचार के नियम प्रिय थे । तथा वे चतुर्दश पूर्वधारी और चार ज्ञान वाले थे। ऐसे वे केशी कुमार श्रमण स्वयं के पांच सौ भिक्षु शिष्यों के साथ क्रमशः ग्रामानुग्राम विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी के बाहर ईशान कोण में कोष्ठक चैत्य में आकर ठहरे और वहाँ योग्य अभिग्रह - धारण कर संयम और तप से आत्मा को भावित कर रहने लगे ।
पहाणे वे पहाणे नयष्पहाणे नियमप्पहाणे सञ्चष्पहाणे सोय पहाणे नाण पहाणे दंसणप्पहाणे वरितप्पहाणे ओराले .. - चउदसपुव्वी चडणाणोचगए पंचहि अणगारसहि सद्धि संपवुिडे पुव्वाणुपुच्चि चरमाणे गाणाणुगामं दूइजमाणे सुहंसुद्देणं विहरमाणे जेणेवसावत्थी नयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छर, सावत्थी-नयरीए बहिया कोठ्ठए चेहए अहापडिरूवं उग्गह उग्गह उग्गिहित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ।
- राय ० सू १४७
तपणं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग-तिय- चउक्क चश्चर- चउमुइ- महापहेसु महया जणसह इ-वा-जणबूहे इ वा जणबोले इ वा जणकलकले इ वा जण उम्मी इ वा जणउक्क लिया इ वा जणसन्निवाए इ वा जाव परिसा पज्जुवासइ ।
- राय० सू १४८ जिस समय केशी कुमार श्रमण श्रावस्ती नगरी आये - उस समय उस नगरी में बहुत - बहुततर भेट में त्रिकमें, चोकमें, चाचरमें, चोकठे में, राजमार्ग में और बहुत - बहुत जहाँ सुना - वहाँ बहुत लोग परस्पर इस प्रकार कहने लगे कि आज पाश्र्वपत्य केशी कुमार भ्रमण यहाँ आये हैं तो देवानुप्रिय ! हमको उनके पास जाना चाहिए, जाकर बंदन, नमस्कार, सत्कार, सम्मान करना चाहिए ।
ऐसा विचार कर जन-समुदाय महाजन कोष्ठक चैत्य में जहाँ केशी कुमार श्रमण ठहरे थे वहाँ उनके दर्शनार्थ आया । केशी कुमार ने स्वयं के पास आये हुए लोगों से योग्य हित शिक्षा दी ।
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