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भूयाभिसंकार दुर्गछमाणा, सव्वेसि पाणाण निहाय दंड । तम्हा ण भुंजंति तहप्पगार, एसोऽणुधम्मो इह संजयाणं || 'णिग्गंथधम्मम्मि इमास माही, अस्सिं लुठिया अणिहे चरेज्जा । बुद्ध मुणी सीलगुणोघवेए, इहचणं पाडणाई सिलोगं ।।
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- सू० श्रु २ अ ६ गा ३० से ४२ | पृ० ४६५-६६
करते हुए कहते हैं- है शाक्य भिक्षुओ ! यह प्राणियों का घात करके पाप का अभाव कहना जो ऐसा कहते हैं, और जो सुनते हैं।
शाक्यमत वालों के मत का खंडन शाक्यमत संयमी पुरुषों के योग्य नहीं है । दोनों के लिए अज्ञान वर्धक और बुरा है ।
ऊपर, नीचे और तिरछे दिशाओं में त्रस और स्थावर प्राणियों के सद्भाव के चिह्न को जानकर जीव हिंसा की आशंका से विवेकी पुरुष हिंसा से घृणा करता हुआ विचार कर भाषण करे और कार्य भी विचार कर ही करे तो दोष किस प्रकार हो सकता है ।
खल्ली के पिंड में पुरुष बुद्धि मूर्ख को भी नहीं होती है, पिंड में पुरुष बुद्धि अथवा पुरुष में खल्ली के पिंड की बुद्धि खलपिंडी में पुरुष बुद्धि होना संभव नहीं है, अतः ऐसा वाक्य करना भी मिथ्या है।
जिस वचन के बोलने से जीव को पाप लगता है, वह बन्धन विवेकी जीव को कदापि नहीं बोलना चाहिए। तुम्हारा पूर्वोक्त वचन गुणों का स्थान नहीं है। अतः दीक्षा धारण किया हुआ पुरुष ऐसा निःसार वचन नहीं कहता है ।
अतः जो पुरुष खल्ली के करता है यह अनाय्य है ।
अहो ! बौद्धों तुम ने ही पदार्थ का ज्ञान प्राप्त किया है तथा तुमने ही जीवों के कर्मफल का विचार किया है एवं तुम्हारा ही यश पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्र तक फैला है तथा तुमने ही हाथ में रखी हुई वस्तु के समान इस जगत् को देख लिया है।
जैन शासन को मानने वाले पुरुष जीवों की पीड़ा को अच्छी तरह सोचकर शुद्ध को अन्न को स्वीकार करते हैं तथा कपटसे जीविका करने वाले बन कर मायामय बचन नहीं बोलते है । इस जेन शासन में संयमी पुरुषों का यही धर्म है ।
जो पुरुष दो हजार स्नातक भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है। तथा रुधिर से लाल हाथ वाला पुरुष इसी लोक में निन्दा को प्राप्त करता है।
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इस बौद्ध मत को मानने वाले पुरुष मोटे भेड़े को मार कर उसे बौद्ध भिक्षुओं के भोजन के लिए बनाकर उसे लवण और तेल के साथ पकाकर पिप्पली आदि से उस मांस को वधारते हैं ।
वह असंयमी
अनायों का कार्य करने वले, अनाय्यं अज्ञानी रसलम्पट वे बौद्ध भिक्षु यह कहते है कि बहुत मांस खाते हुए भी हम लोग पाप से लिप्त नहीं होते हैं।
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