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( ३२० )
हे देवानु प्रियो ! तुम शीघ्र जाओ और इस सूर्याभविमान में आये हुए सिंगोड़े के घाट के मार्गों में, त्रिकोण में, चतुष्कोण में, चत्वारों में, चतुर्मुखों में और महापथों में तथा प्रकार अटारियों द्वार-गोपुर, तोरण, आराम, उद्यान, बन, बनराजियों, कानन और बनखंडों में अर्थात हमारे इस विमान में वास किये हुए देव और देवियाँ उक्त रीति से छोटे-मोटे सर्व स्थल में अर्चनिका करे ऐसा तुम फैलाव करो ।
अभियोगिक देवों द्वारा स्वयं के स्वामी सूर्यामदेव की ऊपर प्रमाण की आघोषणा सुनकर वहाँ बसे हुए प्रत्येक देव और देवियों को उक्त घोषणा जनाई । प्रमाणपूर्वक वे वे प्रत्येक स्थल की अर्चनिका की ।
यह सब होने
बाद वह सुर्यामदेव नन्दा पुष्करिणी गया । वहाँ उसने हाथ-पैर पखाले और वहाँ से वह चार हजार सामानिक देव सभ्य, चार पहराणियाँ और सोलह हजार आत्मरक्षक देव आदि अनेक देव देवियों के साथ में, मोटे ठाठमाठ से बाजते-गाजते वरघोड़ा फरे-वैसे ही फरता - फरता सीधा स्वयं की सुधर्म सभा की ओर आया । वहाँ पूर्व द्वार में बैठकर, वहाँ मुख्य सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा ।
.६ भगवान के सम्बन्ध में प्रवाद ।
.६.१ बौद्ध भिक्षु का प्रवाद तथा आद्र कुमार का उत्तर । (क) बौद्ध भिक्षु का प्रवाद ।
पिण्णगपिंडीमवि विद्ध सूले, केइपएजा पुरिसे इमेसि अलाउयं' बा, बि 'कुमारग' त्ति, स लिप्पई पाणिवहेण अम्हं । अहबाब विद्ध ूण मिलक्खु सूले, पिण्णागबुद्धी एणरं परजा । कुमारगं वाचि अलाउएत्ति, णलिप्पई पाणि वहेण अहं ॥ पुरिसंच विद्धूण कुमारगं था, सूलंमिकेई पर जायते ॥ पिण्णागपिंडि सहमारुहेत्ता, बुद्धाण तं कप्पइ पारणाए ॥ सिणायगाणं तु दुवे सहस्से, जे भोयए णितिर भिक्खुयाण ॥ ते पुणखंधं सुमहऽजणित्ता, भवंति आरोप्प महंतसन्ता ॥
- सूय० श्रु २ अ ६ागा २६ से २६
गोशालक को परास्त करके भगवान् के शाक्य मतवाले भिक्षुओं से भेंट हुई। वे आर्द्र कुमार से कहने लगे
पास जाते हुए आर्द्रक जी को मार्ग में
कोई पुरुष खल्ली के पिंड को भी यदि 'यह पुरुष है' पकावे अथवा तुम्बे को बालक मानकर पकावे तो वह हमारे पाप का भागी होता है ।
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यह मानकर शूल में वेध कर मत में प्राणी के वध करने के
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