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पत्ताई ताई गेहति गेण्हित्ता गंदातो पुषखरिणीतो पच्चुत्तरति पच्चुत्तरित्ता जेणेष सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए ।
-राय. सू० १३८
इस प्रकार अलंकृत हुआ वह सुर्यामदेव व्यवसाय सभा को प्रदक्षिणा करता हुआ उसमें आया और वहाँ सिंहासनारूढ़ हुआ। बाद में तो उसके सामानिक सभ्यो उसके समझ वहाँ के पुस्तक रत्न को छोड़ा। उसने उसको उघाड़कर वाचन किया। उसमें से धार्मिक व्यवसाय के लगती समजुती मेलवी ली।
यह क्रम पूरे होने के बाद वह, वहाँ से पूर्व द्वार में से निकल कर नन्दी पुष्करिणी गया। वहाँ गोठ वेला सोपान द्वारा पुष्करिणी में उतर कर उसने स्वयं के हाथ-पैर पखाले ।
बाद में अच्छे परम शचि भूत होकर हाथी की मुखाकृति की जैसी जल से भरी हुई एक मोटी सफेद रजतमय झारी और पुष्करिणी के कमल आदि लेकर वहाँ से वह सिद्धायतन तरफ जाने के लिये निकला ।
सूर्याभदेव ने भगवान महावीर के सम्मुख बतीस प्रकार के नाटक दिखाये ।
इन बतीस प्रकार के नाटकों में वे देव और देवकुमारियाँ ढोलादि तत-पहोले, वीणा आदि वितत-ताँत वाले, झांझ आदि घन-नक्कर और शंखादि शुषिर-ये चार प्रकार के बाजे बजाते थे।
उरिक्षप्त, पादवृद्ध, मंद और रोचित-इस प्रकार चार प्रकार का संगीत गया जाता था।
अंचित, रिभित, आरभट और भसोल-ये चार प्रकार के नृत्य किये थे।
दाष्टांतिक, प्रात्यंतिक, सामान्यतोपनिपातनिक और लोकमध्यावसानिक-ये चार प्रकार के अभिनय भजवी होता था।
छाती के ऊपर दोर, मादलियों, कंठी, झूमण, कान में कंडल और मस्तक पर चूड़ामणि मुकुट आदि आभरण पहनकर स्वयं के देह को-यह सूर्याभदेव ने भलीभाँति सजाए । ___ तथा गुंथी हुई, वीटी हुई, भरी हुई और एक-दूसरे के नाल से जोड़ी हुई-ऐसी चार प्रकार की मालाओं से स्वयं की जात को कल्पवृक्ष की तरह सुशोभित करता हुआ उसने दिव्य पुष्पमाल भी पहनी।
[१३९] तए णं तं सूरियाभं देवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ जाप [पृ० ४४ पं २] सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे सूरियाभविमाणवासिणो जाव देवीओ य अप्पेगतिया देवा उप्पलहत्थगा जाप सयसह
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