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( ३.२ ) उनका संगीत उरसे आरम्भ होता। उठने में मन्द-मन्द, मूर्धा में आते हुए तार स्वर वाला बाद में कंठ में आता हुआ विशेष तार स्वर वाला-इस प्रकार तीन प्रकार का था। तब उसका मधुर पड छन्द नाटकशाला आखाय प्रेक्षागुह वाला मण्डप में पड़ता था। जिस जात के राग का गान होता उसके अनुकूल ही उसका संगीत होता। गाने वालों के
र मर्धा और कंठ-ये तीन स्थान और इन स्थानों के करण विशुद्ध थे। तथा गंजते बांस का पाव और वीणा के स्वर साथ में मिलता। एक दूसरे की बागती हथेली के आवाज को अनुशरण करता, मुरज और कासिओं के झणझणाट के साथ नाच नराओं के पैर के ठमकाना ताल के बराबर मिलता था। बीणा के लय में बराबर बन्धबेसता और प्रारम्भ से जो तान में पावों आदि बजते थे। उसके अनुरूप ऐसा इनका संगीत कोयल के टहुकाजवा मधुर था। तथा यह सर्वप्रकारसेसम, सललित-कान को कोमल, मनोहर, मृदुपदसंचारी, श्रोताओं को रतिकर, अन्त में भी ऐसा वह नाचने वालो का नाचसज विशिष्ट प्रकार का उत्तमोत्तम संगीत था ।
जब यह मधुर संगीत चलता था तब शंख, रणशिंगु, शंखली, खरमुखी पेया और पीरीपीरिका को बजाने वाले वे देव उनको धमन करते थे, पणव, पटह ऊपर आघात करते, भंभा मोटी डाकों को अफैलावते, भेरी, क्षालर, दुंदुभी ऊपर ताडन करते, मुरज, मृदंग, नन्दीमृदंगों को आलाप लेते, आलिंग कुस्तुंब गोमुखी मादल ऊपर उत्ताडन करते, बीणा, विपंची-वल्लकीआको मूर्छावते, सो तार की मोटी वीणा काचवी, वीणा चित्र वीणा को कूटते । बद्धीस सुघोषा नन्दी घोषा का सारण करते, भ्रामरी, षड्भ्रामरी परिवादनी को स्फोटन करते, तुणतुंब वीणा को छबछबते, आमोद झांझ, कुंभ, नकुलोको आमोटन करतेपरस्पर अफलावते, मृदङ्ग, इडुक्की, विचिक्कीओ को छेड़ते, करटी, डिंडिम, किणित, कडवाको बजाते हुए, दर्दरक, दर्द रिकाओ कुस्तंबुरू, कलशीओ, मड्डुओ ऊपर अतिशय ताडन करते, और बंसी-बेणु, बाली, परिल्ली तथा वद्धकों को फूंकते थे ।
इस प्रकार ये गीत, नृत्य और वाद्य-दिव्य-मनोज्ञ, मनोहर और शृङ्गार रस से तरबोल बने थे। अद्भुत बने थे सबके चित्त में आक्षेपक नीवड़े थे, इन संगीतों को सुनने वाले और नृत्यों को देखने वाले मुख में से उछलते वाहवाह के कोलाहलसे-यह नाटकशाला गाज रही थी।
इस प्रकार इन देवों की दिव्य रभत प्रवृत्त होती थी। सोत्थिय-सिरियच्छ-नंदियावत्त-घद्धमाणग ।
-राय० स० ६६
इन रमत में मस्त बने हुए वे देव कुमार और देव कुमारिया श्रमण-भगवान महावीर के सम्मुख स्वस्तिक, श्रीवत्स, नन्दावर्त, वर्धमानक-मद्रासन, मत्स्य और दर्पण के दिव्य अभिनय कर यह मंगलरूप प्रथम नाटक दिखाया।
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