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( २६६ ) भगवन ! आप देवानुप्रिय की तरफ से हमारी भक्ति लिया हुआ मैं ऐसी इच्छा करता हूँ कि हमारी दिव्य ऋद्धिसिद्धि दिव्य देवद्युति और दिव्य देवप्रभाव और बतीस प्रकार की दिव्य नाट्यकला इन गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को दिखाना चाहिए ।
भ्रमण भगवान महावीर ने सुर्याभदेव की उपर्युक्त विनती को आदर नहीं किया, अनुमति नहीं दी और उस तरफ मौन रखा ।
उसके बाद दूसरी बार, तीसरी बार भी सुर्याभदेव ऐसी ही विनती की और उसके उत्तर में भगवान महावीर ने उसका आदर नहीं करते हुए मात्र मौन ही धारण कर रखा । अंत में वह सुर्याभदेव श्रमण भगवान महावीर को तीन प्रदक्षिणा देकर, वंदन-नमस्कार कर उत्तर-पूर्व दिशा की ओर गया। ईशान कोण में जाकर उसने वैक्रिय समुद्घात किया। उसके द्वारा उसने संख्येय योजन तक लंबा दंड बाहर निकाला, जाड़े और मोटे पुद्गलों को छोड़ दिया और देखने योग्य ऐसे यथासूक्ष्म पुद्गलों को संचय किया । फिर दूसरी बार वैक्रिय समुद्घात कर उसने नरधाना ऊपर के भाग जैसा सर्व प्रकार से सर्व बाजु से एक समान ऐसा एक भूभाग की रचना की। उनमें रूप, रस, गंध और स्पर्श से सुशोभित पहले वर्णवेला ऐसे अनेक मणिओं को जड़ दिया। सर्व बाज़ से एक समान भूमंडल में बीचोबीच उसने एक प्रेक्षागृह की रचना की! नाटकशाला को खड़ा किया। यह नाटकशाला, उसमें बंधा हुआ उल्लोच-चंदरवो, अखाड़ा और मणि की पेढलीइन सबका वर्णन आगे कहा गया है तथा मणि की-यह पेढली ऊपर सिंहासन, छत्र आदि का जो आगे वर्णन किया गया है-वह सब बराबर गोठवी दिया।
उसके बाद यह सुर्याभदेव श्रमण भगवान महावीर को देखते हुए उनको प्रणाम किया और भगवान मुझे अनुज्ञा दो-ऐसा कहकर बांधी हुई नाटकशाला में तीर्थकर के सामने उत्तम सिंहासन पर बैठता है।
उसके बाद बैठते हुए बेंत उसने अनेक प्रकार के मणिमय, कनकमय, रत्नमय, विमल और चकचकते कड़ा पोंची वेरखा आदि आभूषणों से दीप्त उज्ज्वल पुष्ट और लंबा ऐसा स्वयं का दाहिना हाथ प्रसारित किया।
इसके यह दाहिने हाथ में से सरीखे वय लावण्य रूप और यौवनवंत, सरीखे नाटकीय उपकरण और वस्त्राभूषणों से सजित, खंभा की दोनों बाजू में उत्तरीय वस्त्र से युक्त, डोक में कोटिओं और शरीर में कंचुक पहरे हुए, टीले और छोगे में लगे हुए, चित्र-विचित्र पट्टे वाले और फुदड़ी फरते जिसके अंत में फेण जैसा ऊँचा हो ऐसा अंत मैं-कोरे छोड़ी हुई झालर वाले रंग-बेरंगी नाटकीय परिधान पहनी हुई, छाती और कंठ में पड़े हुए एकावल हारों से शोभायमान और नाच करने की पूरी तैयारी वाले एक सौ आठ देवकुमार निकले।
इसी प्रकार सुर्याभदेव ने प्रसारित बायें हाथ में से चन्द्रमुखी, चंद्रार्घ समान ललाट पट्ट वाली, खरते हुए तारे के समान चमकती हुई आकृति वेश और सुन्दर शृङ्गार
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