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गौतम - भगवन् ! क्या दो, तीन यावत् संख्यात प्रदेश को जीव कहा जा सकता है । भगवान् — नहीं । अखंड चेतन द्रव्य में एक प्रदेश न्यून को भी जीव नहीं कहा जा सकता है ।
यह सुन तिष्यगुप्त का मन शंकित हो गया । शेष प्रदेश जीव नहीं है, इसलिए अंतिम प्रदेश ही जीव उसने अपना आग्रह नहीं छोड़ा, तब उसे संघर्ष से अलग कर दिया ।
उसने कहा - अंतिम प्रदेश के बिना है । गुरू ने उसे समझाया परन्तु
afareगुप्त अपनी बात का प्रचार करते हुए अनेक गाँवों-नगरों में गये । अनेक व्यक्तियों को अपनी बात समझाई |
एक बार वे आलंमकल्पा नगरी में आये और अंबसाल वन में ठहरे। उस नगरी में मित्रश्री नामक श्रवणोपासक रहता था । वह तथा दूसरे श्रावक धर्मोपदेश सुनने आये । तिष्यगुप्त ने अपनी मान्यता का प्रतिपादन किया । मित्रश्री ने जान लिया कि ये मिथ्या प्ररूपण कर रहे हैं । फिर भी वह प्रतिदिन प्रवचन सुनने आता रहा। एक दिन उसके घर में जीमनवार था । उसने तिष्यगुप्त को घर आने का निमंत्रण दिया । तिष्यगुप्त भिक्षा के लिए गये, तब मित्रश्री ने अनेक प्रकार के खाद्य उनके सामने प्रस्तुत किये और प्रत्येक पदार्थ का एक-एक छोटा टुकड़ा उन्हें देने लगा । इसी प्रकार चावल का एक-एक दाना, घास का एक-एक तिनका और यंत्र का एक-एक तार उन्हें दिया । तिष्यगुप्त ने मन ही मन सोचा कि यह अन्य सामग्री मुझे बाद में देगा । किन्तु इतना देने पर मित्र श्री तिष्यगुप्त के चरणों मैं वंदन कर बोला- अहो में धन्य हूँ, कृतपुण्य हूँ कि आप जैसे मुनीजनों का मेरे घर पदार्पण हुआ है । इतना सुनते ही तिष्यगुप्त को क्रोध आ गया और वे बोले- तुमने मेरा तिरस्कार किया है। मित्रश्री बोला- नहीं, मैं भला आपका तिरस्कार क्यों करता। मैंने आपके सिद्धान्त के अनुसार ही आपको भिक्षा दी है । भगवान् महावीर के सिद्धांत के अनुसार नहीं | आप अंतिम प्रदेश को ही वास्तविक मानते हैं, दूसरे प्रदेशों को नहीं । अतः मैंने प्रत्येक पदार्थ का अंतिम भाग मैंने आपको दिया है, शेष नहीं ।
तिष्यगुप्त समझ गये । उन्होंने कहा – आर्य ! इस विषय में मैं तुम्हारा अनुशासन चाहता हूँ । मित्रश्री ने उन्हें समझाकर सूत्र विधि से भिक्षा दी ।
तिष्यगुप्त सिद्धांत के मर्म को समझकर, पुनः भगवान् के शासन में सम्मिलित हो गये । जीव के असंख्य प्रदेश हैं । किन्तु जीव प्रादेशिक मतानुसारी जीव के चरम प्रदेश को ही जीव मानते हैं, शेष प्रदेशों को नहीं ।
३. अव्यक्तिक- भगवान् महावीर के निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् श्वेता म्बिकी नगरी में अव्यक्तवाद की उत्पत्ति हुई । इसके प्रवर्तक आचार्य आषाढ के शिष्य थे ।
श्वेताबिक नगरी के पोलास उद्यान में आचार्य आषाढ़ ठहरे हुए थे । वे अपने शिष्यों को योगाभ्यास कराते थे। उस क्षण में एक मात्र वे ही वाचनाचार्य थे 1
१ चउदस दो वाससया तइया सिद्धि गयस्स वीरस्स । अव्वत्तगाण
दिठ्ठी से अविआए समुत्पन्ना ||
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-आव० भा गा १२६
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