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हे आयुध्यमान् श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ निदान कर्म करके और उस समय बिना गुरु से उसके विषय में मालोचना किये हुए बिना उससे पीछे हटे और बिना अपने दोष को स्वीकार किये हुए या बिना प्रायश्चित्त धारण किये मृत्यु के समय काल करके किसी एक देवलोक में देवरूप से उत्पन्न होता है। वह वहाँ देवों के बीच में ऐश्वर्य शाली देव होकर विचरता है।
तदनन्तर वह आयु और देवभव के क्षय होने के कारण बिना अंतर से देव शरीर को छोड़कर किसी एक कुल में कन्या रूप से उत्पन्न होता है ।। .४-५ निदान-कुमारों की वृद्धि को देखकर साधु के निदान करने के विषय का
विवेचन--
तस्स एगमवि आणवेमाणस्स जाव चत्तारि पंच अबुत्ता चेव अब्भु. इ-भण देवाणुप्पिया किं करेमो ? किं उवणेमो ? किं आहरेमो ? किं आषिद्धामो १ कि मेहियइच्छियं ? किं ते आसगस्स सदति १ ज पासित्ता णिग्गंथे णिदाणं करेति ।
-दसासु० द १०/सू १६ से उग्रकुल और भोगपुत्रों को देखकर भिक्षुक भी निदान कर्म कर बैठता है ।
अस्तु उसके एक दास को बुलाने पर चार या पाँच अपने आप बिना बुलाये ही उपस्थित हो जाते हैं और कहने लगते हैं - हे देवानुप्रिय ! कहिये हम क्या करें ? क्या भोजन आपको करावे? कौन सी वस्तु लावें। शीघ्र कहिए, हम क्या करें? आपके हृदय में क्या इच्छा है ! आपके मुख को कौन सी वस्तु स्वादिष्ट लगती है, जिसको देखकर निर्ग्रन्थ निदान कर्म करता है ।
जइ इमस्ल तव नियम-संजय-बंभचेर-वासस्स तं चेवं जाव साहु। एवं खलु समणाउसो निग्गंथे णिदाणं किच्चा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिकते कालमासे कालं किश्चा अण्णतरे देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। महड्ढिएसु जाव विरहितिएसु । ।
ततो देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतर चयं चइत्ता जे इमे उग्ग-पुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महा-माउया तेसिं णं अन्नतरंसि कुलंसि पुत्तत्ताए पच्चायाति ।
-दसासु• द १० जब निर्ग्रन्थ उक्त उग्र और भोग पुत्रों को देखकर अपने चित्त में संकल्प करता है यदि इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का पूर्वोक्त फल है यावत ठीक है। हे चिरंजीवी श्रमणो !
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