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( २५८ ) नमंसित्ता तस्स ठाणस्स आलोयंति पडिक्कमंति जाव अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवज्जति
दसासु० द १० तत्पश्चात् बहुत से निर्ग्रन्थ और निर्ग्रन्थियाँ श्री श्रमण भगवान महावीर स्वामी के इस अर्थ को सुनकर और हृदय में विचार कर श्रमण भगवान महावीर को वन्दना करते हैं, उनको नमस्कार करते हैं। फिर वन्दना और नमस्कार कर उसी समय उसकी आलोचना करते हैं, और पाप-कर्म से पीछे हट जाते हैं। यावत् यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपकर्म में लग जाते हैं । ४. पुरुष के कष्टों को देखकर स्त्री-जन्म को अच्छा समझकर स्त्री बनने का निदान किया
___ दुक्खं खलु पुमत्ताए, जे इमे उग्गपुत्ता महामाउया भोगपुत्ता महामाउयो एतेसि णं अण्णतरेसुउच्चावएसु महा-समर-संगामेसु उच्चावयाई सत्थाई उरसि चेव पडिसं वेदेति ।
तं दुक्खं खलु पुमत्ताए। इत्थि-तणयं तं साहु। जइ इमस्स तव-नियम. बंमचेर-वासस्स फलवित्तिविसेसे अस्थि वयमवि आगमेस्साणं इमेतारूवाई उरालाई इत्थि-भोगाइ भुंजिस्सामो सेतं साहु।
--दसासु० द १० संसार में पुरुषत्व, निश्चय ही कष्टकर है। जो ये उग्रपुत्र महामातृक और भोगपुत्र महामातृक है उनको किसी न किसी बड़े या छोटे महायुद्ध में छोटे या बड़े शस्त्र से छाती में विद्ध होना पड़ता है । अतः पुरुष होना महाकष्ट है और स्त्री होना अत्युत्तम ।
यदि इस तप-नियम और ब्रह्मचर्यवान का कुछ विशेष फल है तो हम भी आगामी काल में यावत् इस प्रकार के प्रधान स्त्रियों के काम-भोगों को भोगते हुए विचरण करेंगे।
यह हमारा विचार श्रेष्ठ है। निदान कर्म करने वाले भिक्षु के स्त्री बनने का अधिकार
__ एवं खलु समणाउसो णिग्गंथे णिदाणंकिचा तस्स ठाणस्स अणालोइय अप्पडिक्कंते जाव अपडिवजित्ता कालमासे कालं किच्चा अण्णतरेषु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवति ।
से णं तत्थ देवे भवति महड्ढिए जाव विहरति । से णं ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं जाव अणंतरं चयंचइत्ता अण्णतरंसि कुलंसि दारियत्ताए पच्चायाति ।
--दसासु० द १०
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