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( २५६ ) हे आयुष्मन् ! श्रमण ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निर्ग्रन्थी निदान कर्म करके उसका उसी स्थान पर बिना आलोचना किये और उससे बिना पीछे हटे-शेष वर्णन पूर्ववत ही है। क्या वह मुण्डित होकर और घर से निकलकर दीक्षा-धारण कर सकता है ! किन्तु वह उसी जन्म में भव ग्रहण ( बार बार जन्म-ग्रहण ) को सिद्ध कर सके और सब दुःखों का अंत कर सके-यह बात संभव नहीं है।
(ग) से णं भवति से जे अणगारा भगवंतो इरिया-समिया भासासयिया जाव पंचयारी तेणं विहारेणं विहरमाणे बहूई वासाइ परियागं पाउणइ २त्ता आबाहं सि वा उप्पन्नसि वा जाव भत्ताई पच्चक्खाएज्जा १ हंता पच्चक्खाएजा । बहूइ भत्ताइ अणमणाई छेदिज्जा ? हंताछेदिज्जा । आलोइय पडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ।
एवंखलु समणाउसो तस्स निदाणस्स इमेयारूवे पापफल-विवागे जं जो संचापति तेणेव भवग्गहणे णं सिज्झेज्जा जाच सव्वदुक्खणमंतं करेज्जा ।
दसासु० द १० फिर वह उनके समान हो जाता है जो अनगार, भगवंत ईयसिमिति वाले, भाषा समिति वाले, ब्रह्मचारी होते है और वह इस विहार से विचरण करता हुआ बहुत वर्षों तक श्रमण-पर्यायका पालन करता है और पालन कर व्याधिके उत्पन्न होने पर या न होनेपर यावत् बहुत भक्तों के अनशन व्रत को धारण करता है। फिर अनशन व्रत का पालन कर अपने पाप की आलोचना कर पाप से पीछे हट के समाधि को प्राप्त कर कालमास में काल करके किसी एक देवलोक में देवरूप हो जाता है
हे आयुष्यमन् ! श्रमण ! इस प्रकार उस निदान कर्म का पापरूप यह फल विपाक होता है कि जिससे उसके करने वाला उसी जन्म में सिद्ध और सर्व दुःखों के अन्त करने में समर्थ नहीं हो सकता। '४ निदान रहित संयम का फल
एवं खलु समणाउसो मए धम्मे पण्णत्ते इणमेव निग्गंथ पावयणे जाव से य परक्कमेज्जा सव्व-काम-विरत्ते, सब-राग-विरत्ते, सब-संगातीते, सव्वहा सव्व-सिणेहातिक्कते, सव्व-चरित-परिखुड्ढे ।
दसासु० द १० हे आयुष्मान ! श्रमण ! इस प्रकार मैंने धर्म प्रतिपादन किया है। यह निग्रन्थ प्रवचन यावत सर्व दुःखों का अन्त करने वाला होता है । वह संयम-अनुष्ठान में पराक्रम करता हुआ सब रागों से विरक्त होता है, सब कामों से विरक्त होता है। सब तरह के संग से रहित होता है और सब प्रकार के स्नेह से रहित और सब प्रकार के चरित्र में परिवृद्ध (द) होता है।
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