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संखेजाणंदीव-समुद्दाण ं मज्झंमज्झेण वीईवगमाणे-वीईवयमाणे जेणेव जंबूदीबे जाव जेणेव अलोगवरपायवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भीए भयगग्गरसरे 'भगवं सरणं' इति वुयमाणे ममं दोण्ह वि पायाणं अंतरंसि शक्ति वेगेण समोवडिए ।
- भग० श ३/३२ / सू० ११४
जब शकेन्द्र ने अपने वज्र को चमरेन्द्र के वध के लिए छोड़ा | इस प्रकार के जाज्वल्यमान यावत् भयंकर वज्र को चमरेन्द्र ने अपने सामने आता हुआ देखा। देखते ही ही वह विचार में पड़ गया कि 'यह क्या है ' तत्पश्चात् यह बार-बार स्पृहा करने लगा कि—ऐसा शस्त्र मेरे पास होता, तो कैसा अच्छा होता ? ऐसा विचार कर जिसके मुकुट का छोगा ( तुर्रा ) मग्न हो गया है। ऐसा तथा आलंब वाले हाथ के आभूषण वाला वह चमरेन्द्र, ऊपर पैर और नीचे शिर करके, कांख ( कक्षा ) में आये हुए पसीने की तरह पसीना टपकाता हुआ वह उत्कृष्ट गति द्वारा यावत् तिरछे असंख्येय द्वीप- समुद्रों के बीचोबीच होता हुआ जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के सुंसुमारपुर नगर के अशोक वनखंड उद्यान में उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्ट पर जहाँ मैं ( श्री भगवान् महावीर स्वामी ) था, वहाँ आया । भयभीत बना हुआ, भय से कातर स्वर बोला हे भगवन् ! आप मेरे लिए शरण है । ऐसा कहकर वह चमरेन्द्र, मेरे दोनों पैरों के बीच में गिर पड़ा अर्थात् छिप गया ।
२ खमरेन्द्र का आवागमन ६४ हजार सामानिक देवों के साथ
× × × । तं गच्छामो ण देवाणुप्पिया । समण भगवं महावीरं वंदामो नमंसामो जाब पज्जुवासामोत्तिकट्टु चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीहि जावसव्विदीप जाव जेणेव अलोगवरपायवे, जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छद्द, उवागच्छित्ता ममं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिण ( करेत्ता वदेत्ता ) नमसित्ता एवं बयासी - एवं खलु भंते ! मए तुब्भं नीसाए सक्के देविंदे देवराया सयमेव अच्चासाइए । (तरणं तेण परिकुविएण समाणेण ममं वहाए वज्जे निसट्ठे ) । तं भवतु देवाणुप्पियाण' जस्सम्हि पभावेणं अकिट्ट ( अव्वहिए अपरिताविए इहमागए इह समोसढे इह संपत्ते इह अज उवसंपजित्ता ण ) विहरामि । तं खामेमिण देवाणुप्पिया ! खमंतु णं देवाणुप्पियाणं ! खंतुमरिहंतिणं देवाणुपिया नाइ भुजो एवं करणयाए त्ति कट्टु ममं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमसित्ता) उत्तरपुरित्थिमं दिसीभागं अवक्कमइ, अवक्कमित्ता, जाव बत्तीस बद्ध नट्टविहि उवदंसेइ, उचदंसेत्ता जामेव दिसि पाउब्भूए तामेव दिसि पडिगए || १२२ ॥
- भग० श ३ / २ / १२६
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