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________________ ( २ ) छेयाए सीहाए सिग्याए उद्धयाए दिव्वाए देवगईए तिरिय असंखेजाणं दीष समुहाणं ममज्झेणं वीईवयमाणे-बीईषयमाणे जेणेष जंबुद्दीवे दीवे जेणेव भारहे वासे जेणेव संसुमारपुरे नगरे जेणेव असोयसंडे उजाणे जेणेव असोववरपायवे जेणेव पुढविसिलावट्टए जेणेव ममं अंतिए तेणेष उवागच्छइ, उषागच्छित्सा मम तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ (करेत्ता वंदर, नमसइ, वंदित्ता) नमंसित्ता एवं क्यासी इच्छामिणं भंते ! तुम्भं नीसाए सक्क देषिदं देवरायं सयमेष अन्चासाइत्तए त्तिक? । x x x -भग० श ३ उ २/स ११२ उस असुरेन्द्र असुरराज चमर ने अवधिज्ञान का प्रयोग किया। अवधिज्ञान के प्रयोग द्वारा चमरेन्द्र ने मुझे (श्री महावीर स्वामी को ) देखा। मुझे देखकर चमरेन्द्र को इस प्रकार का आध्यात्मिक यावत् संकल्प उत्पन्न हुआ कि-"श्रमण भगवान महावीर स्वामी द्वीपों में से जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के सुंसमारपुर नाम के नगर के अशोक वन खंड नामक उद्यान में एक उत्तम अशोक वृक्ष के नीचे पृथ्वी शिलापट्टक पर तेले के तप को स्वीकार करके, एक रात्रिकी महाप्रतिमा अंगीकार करके स्थित है। मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामी का आश्रय लेकर देवेन्द्र देवराज शक को उसकी शोभा से भ्रष्ट करने के लिए जाऊँ। ऐसा विचार कर वह चमरेन्द्र अपनी शय्या से उठा, उठकर देवदूष्य ( देव वस्त्र ) पहना। पहनकर उपपात सभा से पूर्व दिशा की ओर गया। फिर सुधर्मा में चोप्पाल (चतुष्पाल-चारों तरफ पाल वाला, चोखण्डा) नामक शास्त्रागार की तरफ गया। वहाँ जाकर परिघ रत्न नामक शस्त्र किसी को साथ लिये बिना अकेला ही अत्यन्त कोप के साथ चमर चमरचंचा राजधानी के बीचोबीच होकर निकला। फिर तिगिच्छकूट नामक उत्पात पर्वत पर आया। वहाँ वेक्रिय समुद्घात द्वारा समवहत होकर संख्येय योजन पयंत उत्तर वैक्रिय रूप बनाया। फिर उत्कृष्ट देवगति द्वारा वह चमर, उस पृथ्वी शिलापट्टक की तरफ मेरे (श्री महावीर स्वामी ) के पास आया। फिर तीन बार प्रदक्षिणा करके मुझे वंदना-नमस्कार किया। वंदना-नमस्कार कर वह इस प्रकार बोला-हे भगवान् ! मैं आपका आश्रय लेकर स्वममेव अकेला ही देवेन्द्र देवराज शक्र को उसकी शोभा से भ्रष्ट करना चाहता हूँ। शकेन्द्र के वज्र से भयभीत बना हुआ चमरेन्द्र का आवागमन (ख) तएण से चमरे असुरिंदे असुरराया तं जलतं जाप भयंकर बजमभिमुहं आवयमाण पासइ, पासित्ता झियाइ पिहाइ, पिहार मियाइ, झियायित्ता पिहाइत्ता तहेव संभग्गमउडविडवे सालबहत्थाभरणे उड्ढपाए अहोसिरे कक्खागयसेयं पिव विणिम्मुयमाणे-विणिम्मुयमाणे ताए उक्किाए जाप तिरियम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016034
Book TitleVardhaman Jivan kosha Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
PublisherJain Darshan Prakashan
Publication Year1988
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size9 MB
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