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इमं च तस्याः संकल्पं विज्ञाय परमेश्वरः । सुरासुरपरीवारोऽचिरादेव समायौ ॥ १८४॥ बहिश्च समवसृतं श्रुत्वाऽहन्तं मृगावती । द्वाराण्युद्धास्य निर्भीका महामृद्ध या समाययौ ॥ १८५ ॥ सा वन्दित्वा जगन्नाथं यथास्थानमवास्थित | प्रद्योतोऽप्येत्य वन्दित्वा त्यक्त वैरमुपाविशत् ॥ १८६॥ सर्वभाषानुयातया ।
आयोजनविसर्पिण्या
गिरा श्रीवीरनाथोऽथ विदधे धर्मदेशनाम् ॥ १८७॥
एकदा मृगावती को वैराग्य उत्पन्न हुआ - जहाँ तक श्री वीरप्रभु विचरते हैं । वहाँ तक मैं उनके पास संयम को ग्रहण करूँ । उसका यह संकल्प जानकर श्री वीर प्रभु सुरअसुर परिवार के साथ तत्काल वहाँ पधारे - प्रभु का बाहर पदार्पण हुआ जान कर मृगावती ने पुरद्वार को खोल कर निर्णय रूप से मोटी समृद्धि के साथ में प्रभु के पास आयी और प्रभु को वंदना कर योग्य स्थान में बैठी ।
- त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ८
प्रद्योतराज -- भी प्रभु का भक्त होने के कारण वहाँ आकर वैर छोड़ कर बैठा ।
बाद में एक योजन प्रसरण करती हुई और सर्व भाषा को अनुसरती हुई वाणी से श्री वीर प्रभु ने धर्म देशना दी ।
(च) कौशाम्बी में पुनः आगमन -- ५५वें वर्ष में
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विहरतो वयं surroun पत्तने । लोकोऽस्मद् वन्दनार्थं च प्रचचाल ससंभ्रम | १२५ ॥ ऊस्मदागमनोदन्तं श्रुत्वाम्भोहारिणीमुखात् । स भेकोऽखिन्तयदिदं क्वाप्येवं श्रुतपूर्व्यहम् ||१२६|| अहापोह ततस्तस्य कुर्वाणस्य मुहुर्मुहुः | स्वप्नस्मरण वज्जातिस्मरणं तत्क्षणादभूत् ॥१२७॥ स दध्यौ ददुरश्चैवं द्वारे संस्थाप्य मां पुरा । द्वाःस्थो यं वन्दितुमगात् स आगाद्भगवानिह ॥ १२८|| - त्रिशलाका० पर्व १० / सर्ग ६
मैं (भगवान महावीर ) कौशाम्बी नगरी से विहार कर पुनः कौशाम्बी नगरी गया। उस समय लोग संभ्रम से मुझे वंदनार्थ आये थे । उस समय पहली वापिका में से जल भरती स्त्रियों के मुख से हमारे आगमन का वृत्तति सुनकर उस वापिका में रहा हुआ
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