________________
( १४६ ) वैश्रमण भी सम्यक्त्व को प्राप्त किया और गौतम स्वामी ने स्वयं का अभिप्राय जान लिया। इस कारण हर्षित होकर वह स्वयं के स्थान की ओर गया। पांच सौ तापों ने गौतम स्वामी से दीक्षा ग्रहण की
एवं देशनया स्वामी गोतमोऽतीत्य तां निशाम् । प्रभाते चोत्तरन् शैलात्तापसैस्तैरदृश्यत ॥२४१॥ तापसास्तं प्रणम्योचुमहात्मं स्तपसां निधे ! तव शिष्यी भविष्यामस्त्वमस्माकं गुरुभव ॥२४२।। तानूचे गौतमस्वामी गुरुमे परमेश्वरः । सर्वज्ञोऽर्हन्महावीरः स एव गुरुरस्तुचः ॥२४३॥ अथ तानाअपरान् दीक्षयामास गौतमः । सद्यो देवतया तेषां यतिलिंगं समर्पितम् ॥२४४॥ गौतमेन समंचेलुर्गन्तुं ते स्वामिनोऽन्तिके । सह यूथाधिपतिना विन्ध्याद्रौ कुञ्जराइच ॥२४५॥ पथ्येकस्मिन् सन्निवेशे भिक्षाकाले गणाग्रणीः। किं वः पारणकायेष्टमानयामीत्युवाच तान् ॥२४६॥ तैश्च पायसमित्युक्त गौतमो लब्धि संपदा । स्वकुक्षिपूरणमात्रं पात्रे कृत्वा तदानयत् ॥२४७॥ इन्द्रभूतिर्बभाषे तान्निषीदत महर्षयः ।। पायसेनामुना यूयं सर्वे कुरुत पारणम् ॥२४८॥ पायसेनेयता किं स्यात्तथापि गुरुरेष नः। एवं विमृश्य ते सर्वे मुनयः समुपाविशन् ||२४५॥ तान्महानसलब्ध्येन्द्रभूतिः सर्वानभोजयत् । स्वयं तु बुभुजे पश्चात्तेषां जनितचिस्मयः ॥२५०।।
__ -त्रिशलाका पर्व १०/सर्ग ६ इस प्रकार देशना देकर शेष की रात्रि वहाँ निर्गमन कर गौतम स्वामी प्रातःकाल उस पर्वत से उतरने लगे। फलस्वरूप बाट जोते हुए तापसों ने सर्वप्रथम गौतम स्वामी को देखा।
तापस लोग उनके पास आये और उनको प्रणाम किया। प्रणाम कर वे बोलेहे तपोनिधि महात्मा । हम आपका शिष्य होना चाहते हैं और आप हमारा गुरु हो ।
प्रत्युत्तर में गौतम स्वामी ने कहा-भगवान महावीर तुम्हारे गुरु हो ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org