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इस प्रकार उसने बारह वर्ष तक कठोर तप तपा -- किया और अंत में एक मासका अनशनकर चमरचंपा में असुरों के इन्द्र रूप में उत्पन्न हुआ ।
उसने अवधि ज्ञान से ऊपर स्थित सौधर्मावतंसक विमान में सौधर्मेन्द्र को देखा । उसका क्रोध प्रबल हो उठा । उसने अपने अनुचर देवों से कहा - अरे ! यह दुरात्मा कौन है जो मेरे सिर पर बैठा हुआ है 1
उन्होंने कहा -स्वामिन् यह सौधर्म देवलोक का इन्द्र है जिसने अपने पूर्वार्जित पुण्यों के प्रभाव से विपुल ऋद्धि और अतुल पराक्रम प्राप्त किया है ।
इतना सुनते ही चमरेन्द्र का क्रोध और अधिक प्रबल हो गया । युद्ध करने के लिए उत्सुक हो यहाँ से अपना शस्त्र ले प्रस्थान किया ।
सभी देवों ने ऐसा न करने के लिए आग्रह किया, परन्तु उसने अपना हठ नहीं
छोड़ा ।
वहाँ भगवान् महावीर प्रतिमा में
यह पराक्रमी है । यदि मैं किसी भी प्रकार से उससे पराजित हो जाऊँगा तो किसकी शरण लूंगा - यह सोचकर चमरेन्द्र सुसुमरपुर में आया । स्थित थे । वह भगवान् के पास आकर बोला- भगवन् ! मैं अपने प्रभाव से इन्द्र को जीत लूंगा - ऐसा कहकर उसने एक लाख योजन का बैक्रिय रूप बनाया । चारों ओर अपने शस्त्र को घुमाता हुआ, गर्जन करता हुआ, उछलता हुआ, देवों को भयभीत करता हुआ, दर्प से अंधा हो सौधर्मेन्द्र की ओर लपका । एक पैर उसने सौधर्मावतंसक विमान की वेदिका पर और दूसरा पैर सुधर्मा (सभा) में रखा | उसने अपने शस्त्र इन्द्रकील पर तीन बार प्रहार किया और सौधर्मेन्द्र को बुरा-फला कहा ।
उसने उसके साथ
सौन्द्र ने अवधिज्ञान से सारी बात जान ली । उसने चमरेन्द्र पर प्रहार करने के
शरण है, बीच में
लिए वज्र फेंका | चमरेन्द्र उसको देखने में भी असमर्थ था । वैक्रिय शरीर का संकोचकर भगवान् के पास आया और आपकी शरण हैं - ऐसा चिज्ञाता हुआ अत्यन्त सूक्ष्म होकर प्रवेश कर गया । शक ने सोचा- 'अर्हन आदि की निश्रा के बिना कोई भी असुर वहाँ नहीं जा सकता | उसने अवधिज्ञान से सारा पूर्व वृत्तान्त जान लिया । वज्र भगवान् के अत्यन्त निकट आ गया । जब वह केवल चार अंगुल मात्र दूर रहा, तब इन्द्र ने उसका संहरण कर डाला। भगवान् को वंदना कर वह सोचा - चमर ! भगवान् की कृपा से तुम बच गये । अब तुम मुक्त हो, डरो मत! इस प्रकार चमर को आश्वासन देकर शक्र अपने स्थान पर चला गया । शक्र के चले जाने पर चमर बाहर आया और अपने स्थान की ओर लौट गया ।
(ख) इतश्व गौतमोऽपृच्छन्नाथ ! भावाः किं यान्त्यन्यत्वमर्केन्दुविमाने
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वह वहाँ से डर कर भागा । दूर से ही आपकी भगवान् के पैरों के
स्वभावतः ।
यदिहेतुः ॥३५०||
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