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( १२२ ) कई मुण्ड होकर गृहवास से निकलकर अनगार अवस्था में आये और कइयों ने पाँच अणुव्रत और सात शिक्षावत रूप बारह प्रकार के गृहिधर्म को स्वीकार किया।
भगवान की धर्मदेशना से प्रभावित होकर परिषद् को श्रद्धा होना ।
अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी
"सुअक्खाए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे । सुपण्णत्ते ते भंते ! निग्गंथे पावयणे । सुभासिए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे । सुविणीए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे । सुभाविए ते भंते ! निग्गंथे पावयणे । अणुत्तरे ते भंते । निग्गंथे पावयणे। धम्म णं आइक्खमाणा उवसम आइक्खह, उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह, विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह, वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं
आइक्खह। णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए, किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ?" एवं वंदित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया।
-ओव० सू० ७६ श्रावक धर्म व साधु धर्म को स्वीकार करने वालो को छोड़कर शेष परिषद ने श्रमण भगवान महावीर की वन्दना की, नमस्कार किया। फिर इस प्रकार बोली
भंते ! आपने निर्ग्रन्थ प्रवचन सुन्दर रूप से कहा। इसी प्रकार सुप्रज्ञप्त (= विशेषता युक्त उत्तम रीति से कहा हुआ ), सुभाषित (= सुन्दर भाषा में कहा हुआ) सुविनीत (= शिष्यों में उत्तम विनियोजित ) सुभावित (=तत्त्व कथन उत्तम भावयुक्त बना हुआ) और अनुत्तर (= सर्वोत्तम ) है। भंते ! जड़-चेतन की 'ग्रंथियों का मोचक है आपका उपदेश
आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम ( = क्रोधादि के निरोध ) का व्याख्यान दया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक (== बाह्य परिग्रह या बहिर्भाव के त्याग ) का
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