________________
( ११८ )
पडिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुम्भे वदह अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ | माणसियाए - महयासंवेगं जणइत्ता तिब्वधम्माणुरागरते पज्जुवासह |
- ओव० सू० ६६
तब भंभसारपुत्र कूणिकराजा, हजारों नयनमालाओंसे दर्शित बनता हुआ, हजारों हृदयमाला से अभिनंदित होता हुआ, हजारों मनोरथ मालासे ( उसके सहवास में निवास के लिए ) वाञ्छित होता हुआ, कान्ति-सौभाग्यसे प्रार्थित होता हुआ, हजारों वचनों से प्रशंसित होता हुआ चंपानगरी के बीचोंबीच होकर निकला ।
चंपानगरी से निकलकर, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, वहाँ आये । वहाँ आकर, न अधिक नजदीक न अधिक दूर ऐसे स्थान से श्रमण भगवान महावीर के छत्र आदि तीर्थंकर के अतिशय (विशेषताएं ) देखें ।
'तब आभिषेक्य हस्तिरत्नको खड़ा रखा और उससे नीचे उतरे ।
हस्तिरत्न से उतरकर, पाँच राजचिह्नों को अलग किये - यथा खड्ग, छत्र, मुकुट, उपानद् (जुते ) और चामर ।
फिर जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे, वहाँ आये और पाँच अभिगम ( धर्म सभा के औपचारिक नियम ) सहित श्रमण भगवान् महावीर के सम्मुख आये । यथा
१ - सचित्त ( सजीव ) द्रव्योंको छोड़ना,
२- -अचित्त द्रव्योंको व्यवस्थित करना,
३– एक शाटक ( = अखण्ड बिना सिला हुए वस्त्र दुप्पट्टे ) से उत्तरासंग (= उत्तर= श्रेष्ठ + आसंग = लगाव ) करना,
४ - धर्मनायक के दृष्टिगोचर होते ही हाथ जोड़ना और
५ - मनका एकत्त्व भाव करना या एक चित्त होना ।
फिर श्रमण भगवान महावीर की तीन बार आदक्षिणा प्रदक्षिणा की - वंदना की और उन्हें नमस्कार किया ।
वंदना नमस्कार करके, तीन प्रकार की पर्युपासना से पर्युपासना करने लगा । यथा - कायिक, वाचिकी और मानसिकी ।
कायिकी - हाथ पैर को संकुचित करके श्रवण करते हुए - नमस्कार करते हुए, भगवान् की ओर मुँह रखकर विनय से हाथ जोड़े हुए, पर्युपासना करता था ।
वाचिकी - जो जो भगवान् कहते, उससे – यह ऐसाही है भंते! यही तथ्य है भन्ते ! यही सत्य है भंते! निःसंदेह ऐसा ही है भंते ! यही इष्ट है भंते । यही स्वीकृत है भंते ! यही वाञ्छित – गृहीत है भंते । जैसा कि आप यह कह रहे हैं । यो अप्रतिकूल बनकर पर्युपासना करता था ।
मानसिकी - अतिसंवेग ( तीव्रता से आरक्त होकर पर्युपासना करता था ।
Jain Education International
उत्साह या मुमुक्षुभाव) उत्पन्न करके, धर्म के अनुरागमें
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org