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( ११६ ) धरणो इव नागाणं चंदो इव ताराणं भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाई बहूई वाससयाई
'बहूई वाससहस्साई' 'बहूई वाससयसहस्साई' अणहसमग्गो हट्टतुट्ठो परमाउं पालयाहि इट्ठजणसंपरिखुडो चंपाए णयरीए अण्णेसिं च बहूणं गामागरणयर-खेड-कब्बड-दोणमुह-मडंब' पट्टण-आसम-निगम-संवाह-संणिवेसाणं आहेवच्चं पोरेवच्छ 'सामित्तं भट्टित्तं' महत्तरगत्तं आणा-ईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहय-न-गीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंगपडुप्पवाइयरवेणं-विउलाई भोग-भोगाई भुंजमाणे विहराहि त्ति कटु जय-जय सहं पउंजंति ।
ओव० सू६८ -- चंपानगरी के मध्य से होकर निकलते हुए कूणिक राजाकी बहुत से अर्थार्थी (=धन-प्राप्ति के अभिलाषी) कामार्थी (= मनोज्ञ शब्द और रूप की प्राप्ति के अभिलाषी) मोगार्थी ( मनोज्ञ गंध, रस और स्पर्श की प्राप्ति के अभिलाषी ) लाभार्थी ( = मात्र भोजनादि के इच्छुक ), किल्विषिक (=भांड ) आदि, कापालिक, करपीड़ित, शांखिक (शंख फॅकने वाले ) वाक्रिक ( = चक्र नामक शस्त्र के धारक या कंभकार, तैलिक आदि ), लांगलित (भट्ट विशेष या किसान), मुख मांगलिक (= चाटुकार) वर्द्धमान (स्कंधों पर पुरुषों को आरोपित करनेवाले ) भाट-चारण और छात्र समुदाय के के द्वारा इष्ट (वाञ्छित ), कान्त ( कमनीय-सुन्दर ), प्रिय, मनोज्ञ ( मन को खींचने वाली ), मनोऽम ( मन को भाने वाली ) और मनो भिराम (= मन में रम जानेवाली) वाणी से तथा जय-विजय आदि सैंकड़ों मांगलिक शब्दों से लगातार अभिवंदना (आनंदवर्धक बधाई) और अभिस्तवना ( = स्तुति ) की जाती रही थी। वे इस प्रकार बोल रहे थे।
हे नन्द ! ( =भुवन में समृद्धि के करने वाले ) (तुम्हारी) जय हो ! जय हो!
हे भद्र ! ( = कल्याणवान् । या कल्याणकारि) तुम्हारी जय हो! जय हो ! आपका कल्याण हो । नहीं जीते हुए को जीते । जीते हुए ( व्यक्तियों) के बीचमें निवास करें।
देवों में इन्द्र के समान, असुरों में चभर (इन्द्र) के समान, नागों में धरण (इन्द्र) के समान, ताराओं में चंद्र के समान और मनुष्यों में भरत (चक्रवती) के समान वहुत वर्षों तक, बहुत सी शताब्दियों तक बहुत सी सहस्राब्दियों (हजारों वर्षों) तक, बहुत सी शत सहस्राब्दियों ( = लाखों वर्षों ) तक दोष रहित सपरिवार अति संतुष्ट और परमायु अर्थात् उत्कृष्ट आयु भोगें ।
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