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( ८० ) गौतम स्वामी स्कंदक परिव्राजक के साथ-जहाँ श्रमण भगवान महावीर थे-वहाँ जाने लगे। उस समय श्रमण भगवान् व्यावृत्तभोजी (प्रतिदिन भोजन करने वाले) थे । इसलिए उनका शरीर उदार, कल्याणरूप, शिवरूप, धन्यरूप, मंगलरूप, बिना अलंकार के ही शोभित, उत्तम लक्षण व्यंजन और गुणों से युक्त था। और अत्यन्त शोभित हो रहा था।
__ सूर्य के वापस लौटने पर आहार लेने अर्थात् प्रतिदिन आहार करने वाले जिस समय स्कंदक परिव्राजक ने भगवान को देखा-उन दिनों भगवान् उपवास आदि तपस्या नहीं करते थे । किन्तु प्रतिदिन आहार करते थे। .१० भगवान् महावीर का श्रमणों से प्रश्न
अजोति ! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे निम्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-कि भया पाणा ? समणाउसो!
गोतमादी समणा णिग्गंथा समणं भगवं महावीर उवसंकमंति, उवसंकमित्ता वंदंति णमसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी–णो खलु वयं देवाणुप्पिया! एयम जाणामो वा पासामो वा। तंजदि णं देवाणुप्पिया ! एयमलैं णो गिलायंति परिकहित्ताए, तमिच्छामो णं देवाणुप्पियाणं अंतिए एयम जाणित्तए।
अजोति! समणे भगवं महावीरे गोतमादी समणे णिग्गंथे आमंतेत्ता एवं वयासी-दुक्खभया पाणा समणाउसो!
सेणं भंते ! दुक्खे केण कडे ! जीवेणं कडे पमादेणं से णं भंते ! दुक्खे कहं वेइजति ? अप्पमाएणं।
---ठाण० स्था ३/७२/सू ३३६ आर्यों ! श्रमण भगवान महावीर ने गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थों को आमंत्रित कर कहा-आयुष्मान ! श्रमणो ! जीव किससे भय खाते हैं ! गौतम आदि श्रमण निर्ग्रन्थ भगवान महावीर के निकट आये, निकट आकर वन्दन-नमस्कार किया और नमस्कार कर बोले
देवानुप्रिय ! हम इस अर्थ को नहीं जान रहे हैं, नहीं देख रहे हैं। यदि देवानुप्रिय को इस अर्थ का परिकथन करने में खेद न हो तो हम देवानुप्रिय के पास इसे जानना चाहेंगे।
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