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( ७७ ) उस मेदिक ग्राम नगर में रेवती नाम की गाथापत्नी रहती थी। वह आदय यावत् अपरिभूत थी।
___ अन्यदा श्रमण भगवान् महावीर अनुक्रम से विहार करते हुए मेदिक ग्राम नगर के बाहर शालकोष्ठक उद्यान में पधारे ।
यावत परिषद् वंदना करके लौट गई।
(ख) तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स सरीरगंसि विपुले रोगायके पाउन्भूए, उजले जाव दुरहियासे, पित्तजरपरिगयसरीरे, दाहवक्कतीए यावि विहरइ, अवियाई लोहियवश्चाई पि पकरेइ, चाउवण्णंच णं वागरेइ-"एवं खलु समणे भगवं महावीरे गोसालस्स मखलिपुत्तस्स तवेणं तेएणं अण्णाइ8 समाणे अंतो छह मासाणं पित्तजरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए छउमत्थे चेव कालं करिस्सइ ॥ १४६ ॥
-भग• श १५/सू १४६
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के शरीर में महा पीड़ाकारी अत्यन्त दाह करने वाला यावत कष्ट पूर्वक सहन करने योग्य तथा जिसने पित्त ज्वर के द्वारा शरीर को व्याप्त किया है एवं जिससे अत्यन्त दाह होता है-ऐसा रोग उत्पन्न हुआ। उस रोग के कारण रक्त-राद (पीब) युक्त दस्त लगने लगे। भगवान् के शरीर की ऐसी दशा जानकर चारों वर्ण के मनुष्य इसप्रकार कहने लगे-श्रमण भगवान महावीर स्वामी, गोशालक के तपतेज में पराभूत पित्त-ज्वर और ज्वर से पीड़ित होकर छह मास के अंत मे छदमस्थ अवस्था में मृत्यु प्राप्त करेंगे। (ग) रेवती गाथापत्नी
तए णं समणे भगवं महाधीरे अण्णया कदायि सावत्थीओ नयरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । xxx॥१४३॥
तत्थणं मेंढियगामे णयरे रेविती नाम गाहावाणी परिवसइ, अड्ढाजाव अपरिभूया। तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि पुव्वाणुपुचि चरमाणेजाव जेणेच मेंढियगामे णयरे जेणेव साणकोहए चेहए जाव परिसा पडिगया।xxx १४४, १४५।
तं गच्छह णं तुम सीहा ! मेंढियगाम णयर, रेवईए गाहावइणीए गिह, तत्थणं रेषईए गाहावइणीए ममं अट्ठाए दुवे 'कवोयसरीरा' उवक्खडिया, तेहि
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