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( ७६ ) भगवन्तोऽप्येकदृष्येण निर्गता इति सोपधयोऽभवन् xxx, तत्र सर्व एव तीर्थकृतस्तीर्थकरलिङ्ग एव निष्क्रांता, न तु नाम अन्यलिङ्ग-गृहिसाधुलिङ्ग कुलिङ्ग वा, अन्यलिङ्गाद्यर्थः प्रागेवाभिहितः ।
___ सर्व तीर्थंकर (ऋषभनाथ यावत् वर्धमान ) एक देवप्रदत्त-वस्त्र को धारण कर दीक्षा ग्रहण करते हैं तथा सर्व तीर्थंकर लिङ्ग से ही दीक्षित होते हैं, अन्यलिंगी, गृहलिंगीकुलिंगी नहीं होते हैं। .८ भगवान् का रोग और लोकोपवाद
(क) तएणं समणे भगवं महावीरे अण्णया कदायि सावत्थीओ णयरीओ कोट्ठयाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ ॥ १४३॥
तेणं कालेणं तेणं समएणं मेंढियगामे णामं णगरे होत्था, वण्णओ। तस्स णं मेंढियगामस्स णयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसिभाए एत्थणं साणकोट्टए णामं चेइए होत्था, वण्णओ जाव पुढविसिलापट्टओ ॥ १४४॥
__ तस्सणं साणकोहगस्स चेयस्स अदूरसामंते, एत्थणं महेगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, किण्हे किण्होभासेजाव महामेहणिकुरंबभूए, पत्तिए पुफ्फिए, फलिए, हरियगरेरिजमाणे, सिरीए अईव-अईच उवसोभेमाणे चिट्ठइ ॥१४४॥
तत्थणं मेंढियगामे णयरे रेवई णाम गाहावइणी परिवसइ, अड्ढा जाव बहुजणस्स अपरिभूया ॥ १४४ ॥
तए णं समणे भगवं महावीरे अण्णया कयायि पुव्वाणुपुचि चरमाणे जाय जेणेव मेंढियगामे जयरे जेणेव साणकोहए चेइए जाव परिसा पडिगया ॥ १४५॥
-भग० श १५/सू १४३ से १४५
किसी दिन श्रमण भगवान महावीर स्वामी श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकलकर अन्य देशों में विचरने लगे। उस काल उस समय में मैंढिक नामक नगर था। ( वर्णन ) उस मेदिक ग्राम नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में शालकोष्ठक नामक उद्यान था (वर्णन ) यावत् पृथ्वी शिलापट्ट था। उस शाल-कोष्ठक उद्यान के निकट एक मालुका ( एक बीज वाले वृक्षों का वन ) महाकच्छ था। वह श्याम, श्याम कांतिवाला यावत महामेघ के समूह के समान था। वह पत्र, पुष्फ, फल और हरितवर्ण से देदीप्यमान और अत्यन्त सुशोभित था।
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