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अस्तु चित्त सारथि श्रमणोपासक हुआ। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष स्वरूप को सम्यग् प्रकार समझने लगा। निम्रन्थ प्रवचन में निशंकित और निकांक्षित होकर रहने लगा। .१३ गोशालक के शिष्यों के तप
आजीवियाणं चउब्धिहे तवे पण्णत्ते, तंजहा -उग्गतवे, घोरतवे, रसणिज्जूहणता, जिभिदियपडिसंलीणता ।
ठाणा० स्था ४/७२/सू ३५० आजीविकों के तप के चार प्रकार है
(१) उग्रतप-तीन दिन का उपवास (२) घोरतप, (३) जिहन्द्रिय प्रतिसंलीनतामनोज्ञ और अमनोज्ञ आहार में रागद्वेष रहित प्रवृत्ति । (४) रसनियूहण-घृत आदि रस का परित्याग ।
आजीविक भ्रमण परंपरा का एक प्रभावशाली सम्प्रदाय था। उसके आचार्य थे गोशालक । आजीविक भिक्षु अचेलक रहते थे। वे पंचाग्नि तपते थे। वे अन्य प्रकार के कठोर तप करते थे । अनेक कठोर आसनों की साधना भी करते थे। ।
प्रस्तुत सूत्र में उग्रतप और घोरतप से आजीविकों के तपस्वी होने की सूचना मिलती है। आचार्य नरेन्द्र देव ने लिखा है-बुद्ध आजीविकों को सबसे बुरा समझते थे। तापस होने के कारण इनका समाज में आदर था। लोग निमित्त, शकुन, स्वप्न आदि का फल पछते थे। रसनियूहण और जिहेन्द्रिय-प्रतीसंलीनता-ये दोनों तप आजीविकों के अस्वाद व्रत के सूचक है।
टीका-'आजीविए' त्यादि, 'आजीविकानां' गोशालकशिष्याणां उग्रतपःअष्टमादि क्वचन 'उदार' मिति पाठः तत्र उदारं-शोभनं इहलोकाद्याशंसारहित्वेनेति घोरं-आत्मनिरपेक्ष रसनिज्जूहणया' घृतादिरसपरित्यागः "जिह्वन्द्रियप्रतिसंलीनता -मनोज्ञामोशेष्वाहारेषु रागद्वेषपरिहार इति । .१४ साधुओं की संख्या का विवरण .१ भगवान महावीर के १४००० साधुओं की संख्या का लेखा-जोखा(क) शतत्रयप्रमा ज्ञेया विभोः पूर्वार्थधारकाः।
सहस्राणि नवैवाथ तथा नवशतान्यपि ॥ २०८ ॥ इति संख्यान्विताः सन्ति शिक्षकाश्वरणोद्यताः। प्रयोदशशतान्येवः मुनयोऽवधिभूषिताः ॥ २०९ ॥
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