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( ५२ )
हंता भगवं ! से तेणट्टेणं अजो ! एवं वुच्चाइ - असंखेज्जे लोए अनंता इंदिया तं चैवं ।
तप्पाभि चणं ते पासावच्चेजा थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणंति सव्वण्णू सव्वरिसी ।
तणं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसंति, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - इच्छामि णं भंते । तुब्भं अंतिए वाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं पडिक्कमणं धम्मं उवसंपजित्ताणं विहरित्तए ।
अहासु देवाणुपिया ! मा पडिबंधं ॥
तपणं ते पासावच्चिजा थेरा भगवंतो वाउजामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं सपडिकमणं धम्मं उवसंपजित्ताणं विहरति जाव यरिमेहि उस्सास निस्सा सेहिं सिद्धा बुद्धा मुक्का परिनिव्वुडा सव्वदुषखप्पहीणा । अत्थेगइया देवलोपसु उववण्णा ।
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--भग श ५ / ६ / सू० २५४ से २५७
जब श्रमण भगवान् महावीर सर्वज्ञ - सर्वदर्शी थे उस समय श्री पार्श्वनाथ भगवंत के अपत्य - शिष्य- स्थविर भगवंत - जहाँ श्रमण भगवान् महावीर थे वहाँ आये थे । आकर श्रमण भगवान् महावीर के अदूरसामंत में बैठकर ऐसा बोले
हे भगवन् ! असंख्य लोक में अनंत रात्रि-दिवस उत्पन्न हुए, उत्पन्न होंगे या उत्पन्न होते हैं और नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं या नष्ट होंगे ।
प्रत्युत्तर में भगवान् ने कहा- हे आर्यों ! असंख्य लोक में अनंत रात्रि - दिवस उत्पन्न होते हैं, होंगे, हुए हैं । यावत है नष्ट हुए हैं, नष्ट होते हैं, नष्ट होंगे ।
गुरु स्वरूप ) पुरुषादानीय - वह लोक अनादि, अनवदग्रसंकुचित, ऊपर में विशाल,
क्योंकि - हे आर्यों! निश्चयपूर्वक है कि अपने ( पुरुषों में ग्राह्य- पार्श्व अरिहंत लोक को शाश्वत कहा है। अनंत-परिमित, अलोक से परिवृत्त, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में नीचे पल्यंक के आकार का, मध्य में उत्तम वज्र के आकार का और ऊपर ऊँचे- उभा मृदंग के आकार के जैसा लोक को कहा है। उस प्रकार के शाश्वत, अनादि अनंत, परित, परिवृत्त, नीचे विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त, ऊपर विशाल, नीचे पल्यंक के आकार में स्थित, बीच में वर वज्र समान शरीर वाले और ऊपर खड़े, मृदंग के आकार में स्थित लोक में अनंत जीव बहुत बार उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त होते हैं। और परित्तनियत असंख्य जीव बहुत बार भी उत्पन्न होकर नाश को प्राप्त होते हैं । वह लोक भूत है, उत्पन्न है, विगत
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