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जन्म और मोक्ष के आरे
तीर्थोच्छेदकाल
तीर्थंकरों के तीर्थ में चक्रवर्ती और वासुदेव
भगवान् के वर्तमान शासन में
( ५० )
चोथे आरे के अंत में
तीर्थ का विच्छेद नहीं हुआ
नहीं
दृष्टिवाद का विच्छेद
.३७. भगवान् महावीर के समय में भगवान् पार्श्वनाथ की परंपरा-
१ - औधिक अणगार
(क) तरणं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ, गुणसिलाओ चेहयाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरह | xxx |
तेणं काणं तेणं समए पासावश्चिजा थेरा भगवंतो जाइ सम्पन्ना xxx बहुस्सुया बहुपरिवारा, पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडा अहाणुपुवि xxx जेणेव तुंगिया नगरी जेणेव पुष्पवइए चेइए 'तेणेव उवागच्छंति' x x x संजभेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरति । × × ×।
तत्थणं कालियत्ते नामं थेरे ते समणोवासए एवं वयासी - पुण्वतवेणं अजो ! देवा देवलोपसु उववज्जंति ।
तत्थणं मेहिले नामं थेरे ते समणोवासए एवं वयासि - पुव्वसंजमेणं अज्जो | देवा देवलोपसु उववज्जंति ।
तत्थणं आणंदर क्खिए नाम थेरे ते समणोवासए एवं वयासी - कम्मियाए अजो ! देवा देवलोपसु उववज्जंति ।
तत्थ कासवे नाम धेरे ते समणोवासए एवं व्यासि: -संगियाए अजो ! देवा देवलोपसु उववज्र्ज्जति ।
-भग० श २ / उ५ / सू ६१,६५,१०१
किसी एक समय श्रमण भगवान महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशीलका बगीचे से निकल कर बाहर जनपद में विचरने लगे ।
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उस काल उस समय में भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यानुशिष्य स्थविर भगवान् अनुक्रमसे विचरते हुए ग्रामानुग्राम जाते हुए पाँच सौ साधुओं के साथ तुंगिया नगरी के बाहर ईशान कोण में स्थित पुष्पवती उद्यान में पधारे और यथाप्रतिरूप अवग्रह को लेकर संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरने लगे ।
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