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( २० ) उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर के बहुत से अंतेवासी अनगार भगवंत उनके साथ में थे, वे कैसे थे
वे हलन-चलनादि क्रिया, भाषा का प्रयोग, आहारादि की याचना, पात्र आदि के उठाने-रखने और मल-मूत्र, खेकार, नाक आदि के मैल को त्यागने में यतनावान थे। मन, वचन और काया की क्रिया का निरोध करने वाले थे ।
वे अनगार भगवंत गुप्त ( = अन्तर्मुख-सर्वथा निवृत्त ) गुप्तेन्द्रिय (= इन्द्रियों को उनके विषयों के व्यापार में लगाने की उत्सुकता से रहित ) और गुप्त ब्रह्मचारी (= नियमोपनियम सहित ब्रह्मचर्य के घारक अर्थात सुरक्षित ब्रह्मचर्य वाले ) थे।
अकिञ्चन (द्रव्य से रहित ) थे। वे ममत्व रहित थे। वे छिन्नग्रन्थ थे अर्थात् संसार से जोड़ने वाले पदार्थों से मुक्त थे। अतः छिन्नस्रोत थे अर्थात् शोक आर्तता से रहित थे। संसार-प्रवाह में नहीं बहते थे। तथा निरुपलेप अर्थात् कर्मबंध के हेतुओं से रहित थे।
काँस्य पात्री के समान स्नेह से मुक्त थे। शंख के समान नीरंगण (= रागादि रचनात्मक भाव से रहित ) थे। जीव के समान अप्रतिहत (=रुकावट से रहित) गति वाले थे ! अन्य कुधाताओं के मिश्रण से रहित सोने के समान जातरूप (= प्राप्त हुए निर्मल चारित्र में वैसे ही भाव से स्थित अर्थाद् दोष से रहित चारित्र वाले ) थे। दर्पणपट्ट के समान प्रकट भाव वाले थे। कच्छप के समान गुप्तेन्द्रिय थे। कमलपत्र के समान निलेप थे। आकाश के समान निरवलम्ब थे। वायु के समान निरालय-घर से रहित ) थे। चन्द्र के समान सौम्यलेश्यावाले (=किसी को कष्ट पहुँचाने के कारण रूप मन के परिणाम से रहित) थे। सूर्य के समान दीप्त तेजवाले (=शारीरिक और आत्मिक तेज से तेजस्वी) थे। समुद्र के समान गंभीर थे। पक्षी के समान पूर्णतः विप्रमुक्त थे । मेरु पर्वत के सकान अप्रकंप.(अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्गों-कष्टों में अडोल ) थे।
शरद् ऋतु के जल के समान शुद्ध हृदय वाले थे। गैंडे के सिंग के समान एक जात (रागादि के सहायक भावों के अभाव के कारण एकभूत ) थे। भारण्डपक्षी के समान अप्रमत्त थे। हाथी के समान शूर ( कषायादि भाव शत्रुओं को जीतने में बलशाली) थे । वृषभ के समान जातस्थाम= ( धैर्यवान थे।) सिंह के समान दुर्धर्ष (=परिषहादि मृगों से नहीं हराने वाले ) थे। पृथ्वी के समान सभी (शीत, उष्णादि ) स्पर्शों के सहने वाले थे।
घृत आदि से अच्छी तरह हनन की हुई हुताशन =( अग्नि ) के समान ( ज्ञान और तप रूप) तेज से जाज्वल्यमान थे ।
(ख) अनगारों का अप्रतिबंध विहार
नत्थि णं तेसिणं भगवंताणं कत्थइ पडिबंधे भवइ । से अ पडिबंधे चउन्विहे पण्णत्ते। तंजहा-दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ।
ओव० सू० २८
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