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पुद्गल में अगर वियोजक शक्ति नहीं होती तो सब अणुओं का एक पिंड बन जाता और यदि संयोजक शक्ति नहीं होती तो एक-एक अणु अलग-अलग रहकर कुछ नहीं कर पाते । प्राणी जगत् के प्रति परमाणु का जितना भी कार्य है-वह सब परमाणु समुदायजन्य है और साफ कहा जाय तो अनंत परमाणु स्कंध ही प्राणी जगत के लिए उपयोगी है ।
परमाणु इन्द्रिय ग्राह्य नहीं होता । फिर भी अमूर्त नहीं है, वह रूपी है । पारमार्थिक प्रत्यक्ष से यह देखा जाता है । परमाणु मूर्त होते हुए भी दृष्टिगोचर नहीं होता, इसका कारण है— उसकी सूक्ष्मता । अकेवली यानी छद्मस्थ अथवा क्षायोपशमिक ज्ञानी - जिसका आवरण विलय अपूर्ण है, परमाणु को जान भी सकता है, नहीं भी । अवधिज्ञानी रूपी द्रव्य विषयक प्रत्यक्ष वाला योगी उसे जान सकता है, इन्दिय प्रत्यक्ष वाला व्यक्ति नहीं जान सकता ।
यह दृश्य जगत् — पौद्गलिक जगत् परमाणु संघटित है । परमाणुओं से स्कंध बनते हैं और स्कंधों से स्थूल पदार्थ । पुद्गल में संघातक और विघातक दोनों शक्तियां है। पुद्गल शब्द में भी 'पूरण और गलन' इन दोनों का मेल है । परमाणु के मेल से स्कंध बनता है और स्कंध के टूटने से अनेक स्कंध बन जाते हैं । यह गलन और मिलन की प्रक्रिया स्वाभाविक भी होती है और प्राणी के प्रयोग से भी । कारण कि पुद्गल की अवस्थाएं सादि-सांत होती है, अनादि अनंत नहीं ।
पुद्गल शाश्वत भी है और अशाश्वत भी । द्रव्यार्थतया शाश्वत है और पर्याय रूप में अशाश्वत । परमाणु पुद्गल द्रव्य की अपेक्षा अचरम है । यानी परमाणु संघात रूप में परिणत होकर भी पुन: परमाणु बन जाता है । इसलिए द्रव्यत्व की दृष्टि से चरम नहीं है । क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा चरम भी होता है, अचरम भी ।
प्रवाह की अपेक्षा स्कंध और परमाणु अनादि - अपर्यवसित है । कारण कि इसकी सन्तति अनादिकाल से चली आ रही है और चलती रहेगी । स्थिति की अपेक्षा यह सादि - सपर्यवसान भी है । जैसे - परमाणु से स्कंध बनता है और स्कंध भेद से परमाणु बन जाता है ।
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परमाणु परमाणु रूप में, स्कंध स्कंध के रूप में रहें और अधिक से अधिक असंख्यातकाल तक रह सकते हैं पड़ता है । यह इनकी काल-सापेक्ष स्थिति है । क्षेत्रापेक्ष के एक क्षेत्र में रहने की स्थिति यही है ।
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तो कम से कम एक समय
बाद में उन्हें बदलना ही
स्थिति - परमाणु व स्कंध
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