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नोट-पूरण, गलन स्वभाववाला पुद्गल है। परमाणु से अनंताणुस्कन्ध पर्यन्त हैं । ये पुद्गल-मिलते हैं, अलग होते हैं । कहा हैकालविहीणं दव्वच्छक्कं इह अस्थिकायाओ ॥९७६॥
-प्रवसा० द्वार १५२ काल रहित पांच द्रव्य ही यहाँ पचास्तिकाय रूप है। यद्यपि दस प्राण का उल्लेख आगम साहित्य में नहीं प्राप्त होता है लेकिन प्रवचनसारोद्वार में है ।
इंदिय ५ बल ३ उसासा १ उ १ पाण चउ छक्क सप्त अट्ठव । इगि विगल असन्नी सन्नी नव दस पाणा य बोद्धव्वा ।
-प्रवसा० द्वार १७० । गा १०६६ पांच इन्द्रिय, तीन बल, श्वासोच्छवास व आयुष्य-ये दस प्राण हैं। विकलेन्द्रिय में छः, सात, आठ, प्राण । असंज्ञी में नब और संज्ञी में दस प्राण होते हैं। एकेन्द्रिय में चार प्राण होते हैं आवश्यक सूत्र में कहा है ।
सम्मत्तस्सय तिसु उपरिमासु पडिवज्जमाणओ होइ।
पुव्वपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए ॥ सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय अन्तिम तीन शुभ लेश्यायें से कोई एक शुभ लेश्या होती है लेकिन बाद में कोई भी लेश्या हो सकती है। कहा है
तथा चाह संग्रहणिमूलटीकाकारो हरिभद्रसूरिः
सनत्कुमारादिदेवानां रताभिलाषे सति देव्यः खल्वपरिगृहीताः सहस्रारः यावद् गच्छन्तीति, तथा स एव प्रदेशान्तरे आह-"इह सोहम्मे कप्पे तासि देवीणं x x x सोहम्मगदेवीओ ताओ सणंकुमाराणं गच्छन्ति x x x बंभलोगदेवाणं गच्छन्ति x x x महासुक्कदेवाणं गच्छन्ति ।x x x ईसाणेजासि देवीणंxxx ताओ माहिंददेवाणं गच्छन्ति x x x ताओ लंतगदेवाणं x x x ताओ सहस्सारदेवाणं ( गच्छन्ति )x xx।
__ -पण्ण० प ३४ । सू २०५२ । टीका अर्थात् रति-अभिलाषार्थ देवियां पहले स्वर्ग की तीसरे. पांचवें व सातवें देवलोक तक जाती है तथा ईशान-देवी माहेन्द्र, लंतक व सहस्रार देवलोक तक जाती है । आठवें देवलोक तक देवी जाती है-आगे नहीं।
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