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पुद्गल-कोश
संघाय भेअओ वा, दव्वोवरमेऽवि पज्जव । संति ।
तं कसिणगुणविरामे, पुणाइ दव्वं न ओगाहो ॥१०॥ अभयदेवसूरि टीका - संधातादिना द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, यथा घृ (म्) ष्टपटे शुक्लादिगुणाः - सकलगुणोपर मे तु न तद् द्रव्यम्, न चावगाहनानुवर्तते अनेन पर्यायाणां चिरस्थानम्, द्रव्यस्य तु अचिरम् इत्युक्तम्, अथ कस्मादेवम् ? इत्युच्यते ।
रत्नसिंहरि टीका - संघातमेदौ पूर्ववत् । ततः संघातादिना द्रव्योपरमेऽपि द्रव्यान्यथात्वेऽपि पर्यवा वर्णगंधादयः सन्ति, यथा घृष्टपटे शुक्लादि - गुणः सकलगुणोपरमे पुनर्न तद्द्द्रव्यं न द्रव्यावगाहोऽनुवर्त्तते, अनेन पर्यवाणां चिरस्थानं द्रव्यस्यत्वचिरमित्युक्तम् ।
जिस कारण से वहाँ पर विवक्षित अवगाहना में और अन्यत्र संकोच -विकोच के द्वारा दूसरी अवगाहना में वही द्रव्य प्राप्त होता है क्योंकि तत्र स्थित परमाणु संख्या के बहुत समय तक रहने के कारण द्रव्य का वही रूप रहता है इसलिए अवगाहनास्थानायु की अपेक्षा द्रव्यस्थानायु असंख्येयगुणा है ।
अब भावस्थानायु के अल्प - बहुत्व का विचार किया जाता है :
संघात अथवा भेद से द्रव्य का उपरम होता है परन्तु पर्याय विद्यमान रहता है । यदि सर्वगुणों का उपरम होता है तो द्रव्य भी नहीं रहता है और अवगाहना भी नहीं रहती है ।
द्रव्य का उपरम संघात और भेदपूर्वक होता है अतः संघात आदि के द्वारा द्रव्य के उपरम होने पर अर्थात् द्रव्य के अन्य रूप में परिणत होने पर उसके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि पर्याय रहते हैं । जिस प्रकार घृष्ट-साफ किये हुए वस्त्र में शुक्लादिगुण है उसी प्रकार संघातादि के द्वारा द्रव्य का उपरम होता है किन्तु पर्यायों की सत्ता रहती है । सर्वगुणों के उपरम होने पर न तो वह द्रव्य रहता है और न वह द्रव्य की अवगाहना का अनुवर्तन करता है । इस बात से यह स्पष्ट है कि पर्यायों का अवस्थान चिरकाल - लम्बे समय तक है और द्रव्य का अवस्थान अचिरकाल तक है |
संघाय भेयबंधाणुवत्तिणी
न
उ गुणकालो
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निच्चमेव दव्वद्धा । संघाय भेय मित्तद्धसंबद्धो ॥११॥
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