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पुद्गल-कोश संबद्धमित्युच्यते खदिरत्वे दुमत्ववत् ; खदिरत्वमन्तरेणापि द्रमत्वस्य शिशपादिष्वप्युपलम्भात् ।
संकोच और विकोच की अतिरिक्त स्थिति में अवगाहनाकाल द्रव्य में सम्बद्ध है अर्थात् जिस समय द्रव्य संकोच और विकोच से रहित होता है उस समय उसमें अवगाहना संबद्ध रहती है परन्तु जिस समय संकोच और विकोच होता है उस समय द्रव्य में अवगाहना संबद्ध नहीं होती है अर्थात संकोचन और विकोचन के अभाव में द्रव्य में अवगाहना होती है और संकोचनादि की विद्यमानता में द्रव्य में अवगाहना नहीं रहती है। इस प्रकार द्रव्य और अवगाहना का सहचरपन अनियत है परन्तु द्रव्य संकोचन और विकोचन मात्र में संबद्ध नहीं है अर्थात् संकोचन विकोचन हो या न हो किन्तु द्रव्य का सद्भाव रहता ही है ।
अवगाहनाकाल अवगाहनावस्थानकाल रूप द्रव्य में नियत रूप से संबद्ध रहता है अर्थात् संकोच और विकोच को छोड़कर अवगाहनाकाल द्रव्य में नियत रूप से संबद्ध है। [परमाणुओं के सूक्ष्म परिणाम के द्वारा एक दूसरे में प्रवेश को संकोच कहते हैं तथा सूक्ष्म परिणाम से परिणत द्रव्यों का बादर परिणाम से परिणत होनाविकोच कहलाता है ] इन दोनों संकोच और विकोच का आश्रय लेकर द्रव्य में संकोच
और विकोच का अभाव होने पर अवगाहना होती है तथा संकोच और विकोच के सद्भाव में अवगाहना नहीं होती है। जिस प्रकार जहाँ पर द्रु मत्व नहीं है वहीं पर खदिरत्व भी प्राप्त नहीं होता है। इसके विपर्यय में कहा गया है कि संकोच और विकोच मात्र का सद्भाव रहने पर अवगाहना में द्रव्य संकोच-विकोच की अपेक्षा नियत रूप से संबद्ध नहीं है। जिस प्रकार वृक्षपन में खदिर-खेरपन रहता है उसी प्रकार जिसके जब संकोच और विकोच का अभाव होता है तब द्रव्य में अवगाहना रहती है। अवगाहना की निवृत्ति होने पर भी द्रव्य का निवर्तन नहीं होता है क्योंकि अवगाहना में द्रव्य नियत रूप से संबद्ध नहीं रहता है। जैसेखदिरत्व के न रहने पर भी द्रु मत्व-शिंशप आदि वृक्षों में प्राप्त होता है ।
जम्हा तत्थन्नत्थ व, वव्वं ओगाहणाह तं चेव ।
दव्वद्धासंखगुणा, तम्हा ओगाहणऽद्धाओ ॥९॥ अभयदेवसूरि टीका-अथ भावायुर्बहुत्वं भाव्यते ।
रत्नसिंहसूरि टोका-यस्मात्तत्र विवक्षितावगाहनायां अन्यत्र संकोचविकोचकृतेऽवगाहनान्तरे द्रव्यं तदेव लभ्यते, चिरावस्थायित्वात्तद्व्यावष्टब्धपरमाणुसंख्यायास्तदवस्थत्वात्। तस्मादवगाहनाद्धातो द्रव्याद्धाऽसंख्यगुणेति।
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