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। किन्तु वह जिज्ञासुओं को अज्ञात व अलभ्य ही रहा है। आज तो उसकी भी । प्राप्ति अशक्य है।
वि. सं. २०५२ का वर्ष, जगद्गुरु श्रीहीरविजयसूरि दादा के स्वर्गारोहण । की चतुर्थ शताब्दीका मंगल एवं स्मरणीय वर्ष है । वि. सं. १६५२ में भाद्रपद || शुक्ल एकादशी के दिन, ऊना (सौराष्ट्र) में उनका कालधर्म हुआ था। उस
घटना के इस साल ४०० वर्ष पूर्ण हो रहे है । चतुःशताब्दी के इस स्मरणीय । अवसर के उपलक्ष्य में जगद्गुरुश्री के साथ संबद्ध साहित्य का प्रकाशनपुनर्मुद्रण-संपादन-संशोधन करने का भाव मनमें जागा, और इस भाव को सिद्ध करने की दिशा में डग भरते हुए “जगद्गुरु-हीर-स्वर्गारोहणचतुःशताब्दी ग्रंथमाला" का प्रारंभ करके, उन ग्रंथमाला के प्रथम पुष्परूपेण स्व.मुनि श्रीविद्याविजयजी-लिखित “सूरीश्वर अने सम्राट" नामक, आज
अप्राप्य ग्रंथ का प्रकाशन किया गया। प्रस्तुत ग्रंथ उसी ग्रंथमाला का द्वितीय | पुष्प है।
इस प्रकाशन की दो विशेषताएं यह है कि इस कृति के पुनः संपादन के लिए चार नवप्राप्त निम्नलिखित हस्तलिखित प्रतियों का उपयोग किया गया
है।
CHAALININDIYAM
१. प्र. श्रीकान्तिविजयजी संग्रह-बडौदा की प्रति, क्रः १८५३
अनुमानतः १७ वें शतककी लिखित । २. मुनिश्री हंसविजयजी संग्रह - बडौदाकी प्रति, क्रः ७८४
२० वें शतक की लिखित । शायद प्रथम क्रमांकित प्रति की प्रतिलिपि । ३. मांगरोल जैन संघ-ज्ञानभंडार की प्रति । संभवतः १७वें शतककी,
और अन्य दो की अपेक्षा अधिक शुद्ध। ४. प्र. कान्तिविजयजी संग्रह - पाटण, क्रः ७/१८८
२०वें शतककी लिखित प्रति । । इनमें से तीसरे क्रमांककी प्रति पाठशोधनमें अधिक उपयुक्त सिद्ध हुई है। इन प्रतियों के आधार से मुद्रित वाचना में अच्छा संशोधन हो सका है, जो अध्येताओं के लिए द्रष्टव्य व आनन्दप्रद हो सकेगा ऐसी श्रद्धा है।
दूसरी बात यह है कि कुछ परिशिष्ट इस मुद्रण में सामिल कर दिए गये हैं। श्लोकसूचि व विशेषनामसूचि तो ठीक ही है, किन्तु विशेष ध्यान देने योग्य है।
MURADARAMITAMIRIRALA
Maina
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